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भारत-पाक संबंध विश्वास की कोशिशों पर विश्वासघात

सबको मिलकर भारत सरकार और सेना का मनोबल बढ़ाना होगा ,जिससे आतंक के इस खूनी खेल को सदा के लिए विराम दिया जा सके

भारत विभाजन के सात दशक बाद भी इस विभाजन का उद्देश्य पूरा नहीं हो पाया है ऐसा माना गया था कि अपने लिए अलग राष्ट्र की इच्छा रखने वाले मुस्लिमों की मुराद पूरी हो जाएगी और दोनों देश शांति के साथ विकास के पथ पर अग्रसर होंगे दोनों देशों के पहले सत्ता प्रमुखों पंडित जवाहरलाल नेहरू और मोहम्मद अली जिन्ना की आकांक्षाएं भी यही थी परंतु, भारत पाक संबंधों का इतिहास साक्षी है कि ठीक इसके विपरीत हुआ। आजादी के बाद से ही पाकिस्तान भारत से पैर रखने लगा और कश्मीर पर कब्जा करने के इरादे से युद्ध के मैदान में भारत को ललकार कर कई बार मात खाई ,जब उसे आभास हो गया की युद्ध में भारत को पराजित करना संभव नहीं है तब उसने आतंकवाद को पाल पोस कर छद्म युद्ध की राह पर चल पड़ा। एक और पाकिस्तान का भारत से बैर आजादी के बाद से आज तक निरंतर जारी है तो दूसरी ओर भारत में सरकारों के बदलने के साथ साथ विदेश नीतियों में उतार चढ़ाव आता रहा। पाकिस्तान के साथ दोस्ती के मकसद से नवीन प्रयोग होते रहे और इस संबंध में कई एकतरफा समझौते किए गए, परंतु आज स्वतंत्र भारत की तीसरी पीढ़ी भी पाकिस्तान के साथ संबंधों को सामान्य करने की चुनौतियों से जूझ रही है ,वैसे तो पाकिस्तान का गठन औपनिवेशिक सत्ता का एक बड़ा षड्यंत्र थां। पाकिस्तान एक स्वाभाविक नेचुरल देश नहीं है, इसे भारत की जमीन पर सीमा खींचकर बनाया गया है क्योंकि कोई भी स्वाभाविक देश सैकड़ों हजारों सालों की अपनी भौगोलिक और राजनीति अस्मिताओं को सजातीय मानते हुए एक संप्रभु राष्ट्र की शक्ल लेता है और उसकी एक सामाजिक सांस्कृतिक पहचान होती है लेकिन पाकिस्तान की बुनियाद भी एक कूटनीतिक गलती से पड़ी है। जिसे अंग्रेजों ने धार्मिक आधार पर भारत से अलग कर दिया था।
अब तो यह कहना उचित होगा कि पाकिस्तान के साथ संबंधों की विडंबना यह है कि भारत की कोई भी अच्छी कूटनीति सफल नहीं हो सकती क्योंकि पाकिस्तान इसे होने नहीं देगा पाकिस्तान पहले यह सोचता था कि वह युद्ध करके भारत से जीत जाएगा और इसलिए उसने 1965 और 1971 के युद्ध लड़े ।लेकिन वह दोनों युद्ध हार गया और 1971 में तो बांग्लादेश के रूप में वह दो टुकड़ों में भी हो गया यहां पाकिस्तान से बांग्लादेश का अलग होना भारत के लिए एक बड़ी कूटनीतिक जीत मानी जा सकती है ।पाकिस्तान को लेकर जो विदेश नीति पंडित नेहरू के समय से थी, वही आज भी है ।बस इसमें थोड़ा बदलाव आता रहा है, बदलाव समय के हिसाब से जरूरी था। जैसे अटल बिहारी बाजपेई ने लाहौर डिक्लेरेशन किया और उसके बाद लगा कि भारत-पाक के मसले हल हो जाएंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इसलिए इसे कूटनीतिक चूक मानी गई, इसी तरह से गुजराल डॉक्ट्रिन में भी सभी पड़ोसी देशों के साथ बातचीत और सहयोग की नीति अपनाई गई, लेकिन यह भी सफल नहीं हो पाया। इसे भी कूटनीतिक चूक माना गया, नरेंद्र मोदी ने भी प्रधानमंत्री बनते ही पाकिस्तान के साथ संबंध सुधारने की पिछले 2 वर्षों में बहुत कोशिशें की लेकिन पाकिस्तान ने हमें पठानकोट,ताजपुर और उड़ी जैसे हमले दिए, हो सकता है इसे भी कुछ लोग कूटनीतिक चूक मानले। कहने का तात्पर्य है कि कोई भी प्रधानमंत्री अपने स्तर पर कूटनीतिक चूक नहीं करता, परंतु जब वह कूट नीति सफल नहीं होती तब उसे कूटनीतिक चूक करार दे दिया जाता है, क्योंकि पाकिस्तान में सरकार चलाने का काम वहां की सेना करती है। नागरिक सरकार के हाथ में बहुत कुछ है ही नहीं।
पिछले 70 वर्षों में हर बार भारत की ओर से किए गए विश्वास बहाली के प्रयास का पाकिस्तान में हिंसा के रूप में उत्तर दिया है, हर बार उसने छल से भारत की पीठ में छुरा घोपा है। विश्वास की कोशिशों पर विश्वासघात 1999 में प्रधानमंत्री वाजपेई की ऐतिहासिक लाहौर यात्रा का जवाब पाक ने कारगिल युद्ध के रूप में दिया। मौजूदा सरकार बनने के बाद गत वर्ष प्रधानमंत्री मोदी अनियोजित पाक यात्रा पर गए ।बदले में चंद दिनों बाद ही पाकिस्तानी शह पर पठानकोट एयर वेस पर फिदायीन हमला हो गया क्योंकि राज्य-प्रायोजित आतंकवाद पाकिस्तान की विदेश नीति का अभिन्न अंग है ।जिसका प्रयोग वह अपने पड़ोसी मुल्कों भारत और अफगानिस्तान के खिलाफ छद्म युद्ध के रूप में करता है। राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर कोई भी राजनीति नहीं होनी चाहिए ,यह हमारे राजनीतिक कुलीन वर्ग को सुनिश्चित करना होगा। सबको मिलकर भारत सरकार और सेना का मनोबल बढ़ाना होगा ,जिससे आतंक के इस खूनी खेल को सदा के लिए विराम दिया जा सके।

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डॉ. ए.के. राय
एसोसिएट प्रोफेसर
विधि विभाग एवं अंतर्राष्ट्रीय विधि के जानकार, साकेत महाविद्यालय, अयोध्या।

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