परंपरा और आधुनिकता की व्याख्या बहुत आसान नहीं : डॉ. रघुवंशमणि

-परंपरा, आधुनिकता और साहित्य’ विषय पर एक हुई विचार-गोष्ठी

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अयोध्या। जनवादी लेखक संघ, फैजाबाद द्वारा ‘परंपरा, आधुनिकता और साहित्य’ विषय पर एक विचार-गोष्ठी का आयोजन जनमोर्चा सभागार में किया गया। इस अवसर पर अध्यक्षता करते हुए प्रसिद्ध आलोचक डॉ. रघुवंशमणि ने कहा कि परंपरा और आधुनिकता की व्याख्या बहुत आसान नहीं है। आधुनिकता के संदर्भ में हमें ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को अवश्य देखना चाहिए और केवल विचार या साहित्य ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण समाज में आधुनिकता को देखा जाना चाहिए।

उन्होंने कहा कि आधुनिकता के लिए भौतिक परिस्थितियों- उदाहरण के लिए औद्योगिकीकरण के सापेक्ष समय को देखा जाना चाहिए। उनके अनुसार विभिन्न समयों में आधुनिकता के तत्व मिल सकते हैं लेकिन बिना ऐतिहासिक समग्रता के उसे आधुनिक समय कह देना उचित नहीं है। उन्होंने मार्क्स, डार्विन और फ्रायड का नाम लेते हुए कहा कि इन तीन चिंतकों ने जीवन और समाज को नये तरीके से व्याख्यायित किया, इन्हें आधुनिकता का जन्मदाता कहा जा सकता है। इन विचारकों ने चिंतन की धार्मिक दृष्टि को बदल कर तार्किक और तथ्य आधारित प्रविधि का सूत्रपात किया। डॉ रघुवंशमणि के अनुसार हम किसी लेखक को उसके युग के सापेक्ष ही देख सकते हैं, लेखक में कमियों का होना स्वाभाविक है, विश्व में आधुनिकता के विचार का विकास अलग-अलग रूपों में हुआ। उन्होंने कहा कि समय में। जो नैरंतर्य है, वही परंपरा है भले वह सही हो या ग़लत।

परंपरा का निर्धारण हमारे समय और विचारों से ही संभव है, जिसके लिए इतिहासबोध अत्यंत आवश्यक है। राम विलास शर्मा ने प्रगतिशील परंपरा के तत्वों को प्राचीन ग्रंथों में देखने की कोशिश करते हैं, यह परंपरा को रेखांकित करने का काम था। महान साहित्यकारों और विचारकों ने आधुनिकता के वाहक के रूप में बहुत कठिन जीवन जिया, उनके जीवन और सृजन में फाँक नहीं थी। हिंदी में अस्तित्ववादी चिंतन को अग्राह्य माना गया और उसकी वैचारिकी को कई आलोचकों ने ख़ारिज कर दिया। उनके अनुसार जब सार्त्र ने कहा कि मनुष्य दी हुई परिस्थितियों में स्वतंत्र होता है, तो यह वास्तविक आधुनिक चिंतन था।

इसके पहले दिल्ली से आई ‘हंस’ पत्रिका की संपादन-सहयोगी शोभा अक्षर ने कहा कि आधुनिकता एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है। उन्होंने कहा कि प्रेमचंद अपने लेखन में कहीं बहुत आधुनिक प्रतीत होते हैं तो कहीं बहुत रूढ़िवादी लगते हैं। उनके अनुसार आधुनिकता समकालीनता नहीं है बल्कि कई बार बहुत पुराने लेखक उदाहरण के लिए अक्क महादेवी या ललद्यद बहुत आधुनिक संदर्भों से समृद्ध नज़र आते हैं। शोभा जी ने साहित्य में आधुनिकता को किसी कालखंड में बाँटने का विरोध किया। उनके अनुसार प्रेमचंद के बाद अज्ञेय आते हैं, जिनके बिना आधुनिकता की कोई बात नहीं की जा सकती। परंपरा का सार्थक प्रयोग हम आधुनिक परिप्रेक्ष्य में सकारात्मक रूप में कर सकते हैं। हमको नित्य अपने को आधुनिक बनाते रहना चाहिए। शोभा जी के अनुसार नई अस्मिताओं के विमर्श यथा स्त्री विमर्श या दलित विमर्श को आधुनिकताबोध के माध्यम से ही समझा जा सकता है।

इसके पहले विषय प्रवर्तन करते हुए डॉ. विशाल श्रीवास्तव ने कहा कि परंपरा और आधुनिकता दोनों शब्द साहित्य के इतिहास में बहुतायत से प्रयुक्त हुए हैं। उनके अनुसार कोई कवि या लेखक कितना भी आधुनिक हो जाये, वह कभी अपनी परंपरा से असंपृक्त नहीं हो सकता, उसके लिखने में हजारों सालों की परंपरा की प्रतिध्वनि होती है। परंपरा सदैव अपने मूल रूप में स्वीकृत नहीं होती और उसकी स्वीकार्य बातों को ग्रहण करते हुए बाक़ी को छोड़ना होता है। उन्होंने कहा कि साहित्य में एक ही परंपरा नहीं होती, बल्कि मुख्य परंपरा के बरक्स कई लघु परंपराएं भी मौजूद होती हैं, हिंदी में भारतेंदु युग से प्रारंभ हुई आधुनिकता मुक्तिकामी चेतना में रूप में प्रेमचंद के समय में अपनी वैचारिक संपूर्णता को प्राप्त करती है।

चिंतक-कवि आर डी आनंद ने कहा कि प्रायः परंपराएँ ही रूढ़ि में बदल जाती हैं। कबीर और तुलसी लगभग एक ही समय में दो एकदम भिन्न परंपराओं के वाहक हैं। उनके अनुसार प्रायः हमारा समाज एक ही परंपरा को लेकर आगे चलने की बात करता है, आधुनिकता के प्रति हमारा दृष्टिकोण क्या है, यह अत्यंत महत्वपूर्ण तथ्य है। उन्होंने कहा कि हमें एक आधुनिक बौद्धिक अवधारणा विकसित करने की ज़रूरत है जिससे ग़लत परम्पराओं का प्रतिरोध किया जा सके। उन्होंने कहा कि प्रेमचंद सच्चे अर्थों में आधुनिक थे और समय की विसंगतियों को बखूबी पहचानते थे। इस अवसर पर बोलते हुए जनमोर्चा की संपादक सुमन गुप्ता ने कहा कि परंपरा से आया हुआ भाव सौंदर्य हम साहित्य में कितना आगे ले जा सकते हैं, यही रचनाकार की सफलता है। रूढ़ियाँ ठहरे हुए पानी की तरह होती हैं, जो दूषित हो जाती हैं, यही कारण है कि आधुनिकता की वैचारिकता अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है।

उनके अनुसार परंपरा के शब्द नदी के प्रवाह की तरह होते हैं, यही कारण है कि आधुनिकता और परंपरा के प्रवाह का संगम ही सच्चे साहित्य का रूप सृजित कर सकता है। कार्यक्रम का सफल संचालन करते हुए जनवादी लेखक संघ के कार्यकारी सचिव मुजम्मिल फ़िदा ने आए हुए अतिथियों का स्वागत भाषण भी प्रस्तुत किया। कार्यक्रम के अंत में धन्यवाद ज्ञापन संयोजक सत्यभान सिंह जनवादी ने किया।

गोष्ठी के दूसरे हिस्से में रचनापाठ के क्रम में इलाहाबाद, गोरखपुर और वाराणसी से आए हुए शोधार्थियों आशुतोष प्रसिद्ध, देवव्रत और आकाश यादव सहित इल्तिफ़ात माहिर, डाक्टर नीरज सिन्हा ‘नीर’, लक्ष्यदीप शर्मा ‘लक्ष्य’, विनीता कुशवाहा, मांडवी सिंह, पूजा श्रीवास्तव, वाहिद अली सहित कवियों-शायरों ने अपनी रचनाओं का पाठ किया। कार्यक्रम में मनोरमा साहू,अखिलेश सिंह,जय प्रकाश श्रीवास्तव,अखिलेश पांडेय,महावीर पाल,अजय बाबा,धीरज, सहित बड़ी संख्या में साहित्यप्रेमी, संस्कृतिकर्मी और बुद्धिजीवी मौजूद रहे।

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