आलोचकीय साहस के जीवंत प्रतिमान थे प्रो. नामवर सिंह

by Next Khabar Team
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साहित्यकारों ने अर्पित की श्रद्धांजलि

अयोध्या। हिन्दी के शीर्षस्थ आलोचक एवं प्रगतिशील विचारधारा के प्रतिबद्ध चिंतक, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केन्द्र के संस्थापक प्रो. नामवर सिंह के निधनोपरान्त बीते रविवार को शहर के प्रगतिशील बुद्धिजीवियों एवं साहित्यकारों ने स्थानीय जनमोर्चा सभागार में उन्हें श्रद्धांजलि दी। यह आयोजन जनवादी लेखक संघ, प्रगतिशील लेखक संघ, जनसंस्कृति मंच एवं अन्य प्रगतिशील संगठनों के समन्वय में किया गया। शोकसभा की अध्यक्षता लखनऊ से आये वरिष्ठ उपन्यासकार हरीचरनप्रकाश ने की। उन्होंने नामवर जी को याद करते हुए कहा कि वे साहित्य के आलोचक होने के साथ-साथ संस्कृति एवं सभ्यता के गम्भीर अध्येता भी थे। उनको बोलते हुए सुनने पर ऐसा लगता था कि ज्ञान अपने साक्षात रूप में सामने उपस्थित है। उन्होंने हिन्दी आलोचना की भाषा को आसान और लोकप्रिय बनाने का काम किया। वरिष्ठ आलोचक रघुवंशमणि ने कहा कि जो भी नामवर जी से मिलता था उनसे सहज ही प्रभावित हो जाता था। उनके व्याख्यान बेहद महत्वपूर्ण हुआ करते थे, उनके लिखित रूप को मुकम्मल निबंधों की तरह देखा जा सकता है। उनके अनुसार नामवर जी को वाचिक परम्परा में उनकी उपस्थिति के लिए जाना जायेगा। वे अपनी समूची प्रतिबद्धता के बावजूद साहित्य के मर्म पर अधिक जोर देते थे। उन्होंने अपने आलोचकीय कर्म के माध्यम से साहित्य, समाज, राजनीति, सौन्दर्यशास्त्र आदि के बीच की द्वन्द्वात्मकता को समझने का प्रयास किया। इस अवसर पर नामवर जी को याद करते हुए वरिष्ठ कवि स्वप्निल श्रीवास्तव ने कहा कि नामवर जी परम्परा और आधुनिकता के समन्वय का जीवंत उदाहरण थे। उनकी आलोचना में भारतीय एवं पाश्चात्य काव्शास्त्र के विचारों का मेल था। वे बहुपठ होने के साथ-साथ वाद-विवाद-संवाद में विश्वास रखने वाले चिंतक थे। वरिष्ठ पत्रकार शीतला सिंह ने उन्हें पूरे देश में समग्रता के साथ विद्यमान जन-बुद्धिजीवी के रूप में याद किया। उन्होंने कहा कि नामवर जी केवल हिन्दी नहीं बल्कि दूसरे अनुशासनों के विद्वानों के मध्य भी समान रूप से सम्मान्य थे। पत्रकार कृष्णप्रताप सिंह ने कहा कि नामवर जैसे व्यक्तित्व शताब्दियों में एकाध होते हैं। हमें उनके मूल्यांकन में किसी हड़बड़ी का शिकार नहीं होना चाहिए। ऐसे किसी भी व्यक्तित्व का मूल्यांकन करते समय आवश्यक है कि उन्हें उनकी उच्चता में याद किया जाय। साकेत कॉलेज के प्राध्यापक अनिल कुमार सिंह ने उनके साथ अपनी स्मृतियों को साझा करते हुए कहा कि नामवर जी हिन्दी आलोचना में कहानी विधा को केन्द्र में लाए। उनके व्यक्तित्व में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है उनकी दृष्टि जो ‘बिटवीन द लाइन्स’ देखने में सक्षम थी। हिन्दी में नामवर जी की उपस्थिति एक आर्गेनिक बुद्धिजीवी के रूप में रही है। उनके जैसा विचारोत्तेजक भाषण देने वाले लोग बेहद कम हैं, वे अपने वक्तव्यों के माध्यम से बौद्धक रूप से उद्वेलित करते थे। कवि-प्राध्यापक विशाल श्रीवास्तव ने नामवर जी के साथ अपने संस्मरणों को बताते हुए कहा कि वे आलोचकीय साहस के जीवंत प्रतिमान थे। वे कहते थे कि जरूरी है एक भी ऐसे आलोचक का होना, जिसके भीतर अच्छे को अच्छा और बुरे को बुरा कहने का साहस हो। वे सब साफ-सुलझा हुआ कर देने वाले चिंतक नहीं थे बल्कि सुलझी हुई गुत्थी को फिर से उलझाने में यकीन रखने वाले थे। यही कारण है कि वे नयी स्थापनाओं को देने में सक्षम रहे और हिन्दी में आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हजारीप्रसाद द्विवेदी के बाद सबसे महत्वपूर्ण आलोचक के रूप में जाने गये। युवा कवि और प्राध्यापक प्रदीप कुमार सिंह ने कहा कि हिन्दी के अध्येता-छात्र के रूप में हमें गर्व है कि हमने नामवर जी को देखा है, उनके व्याख्यानों को सुना है। वे निर्विवाद रूप से हिन्दी आलोचना के शिखर-पुरुष थे। उन्होंने अपने गुरु आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी विचारों का अपनी मार्क्सवादी विचारधारा के साथ पल्लवन किया। वे अद्यतन साहित्यिक-राजनीतिक विमर्शों से अवगत रहते थे। इस अवसर पर सूर्यकांत पाण्डेय, सत्यभान सिंह जनवादी, मोतीलाल तिवारी, डॉ. सन्तोष कुमार, कंचन जायसवाल, सम्पूर्णानन्द बागी, अनुराग पाण्डेय, आशीष कुमार दुबे, महेन्द्र प्रताप उपाध्याय, राजेश नन्द, पूजा गौड़, माधुरी, निगार सहित बड़ी संख्या में लेखक-कवियों, बुद्धिजीवियों एवं संस्कृतिकर्मियों की उपस्थित रही।

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