-ग़ज़ल-संग्रह ’जलते सवालों तक’ का हुआ लोकार्पण
अयोध्या। जनवादी लेखक संघ, फैजाबाद और अवध साहित्य संगम के संयुक्त तत्वावधान में रामजीत यादव ‘बेदार’ (याराजी बेदार) के ग़ज़ल-संग्रह ‘जलते सवालों तक’ का लोकार्पण कार्यक्रम आभा होटल, मोतीबाग़ के सभागार में जनपद के वरिष्ठ साहित्यकारों की उपस्थिति में आयोजित किया गया। इस अवसर पर अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए वरिष्ठ कवि स्वप्निल श्रीवास्तव ने कहा कि मेरी जानकारी में फ़ैज़ाबाद में उर्दू-हिन्दी की किसी किताब पर ऐसी व्यापक बातचीत पहली बार हुई है।
उन्होंने कहा कि ग़ज़ल एक लोकप्रिय विधा है और इसकी अपनी अनूठी ताक़त है। उन्होंने कहा कि इस किताब की भूमिका में कविता का इतिहास पूरी तैयारी के साथ लिखा गया है। उनके अनुसार बेदार जी की ग़ज़लें हमें निरंतर बेचैन करती हैं और वे अपने व्यवस्था विरोध के कारण दुष्यन्त कुमार की परंपरा से जुड़ते हैं। उन्होंने कहा कि कविता हमेशा व्यवस्था का प्रतिरोध रचती है। बेदार जी ने गाँव की दुनिया के परिवर्तनों को दर्ज किया है जो सामान्यतः कविता में नहीं होता। उनकी ग़ज़लों में जीवन का पर्यवेक्षण और कविता में उसका रूपांतरण बहुत महत्वपूर्ण ढंग से हुआ है। एक कवि को अपनी पहचान बनाने के लिए शैली और कथ्य का नवाचार ज़रूरी है, जिसके लिए बेदार जी ने अलहदा लहजा अपनाया है।
यह एक संग्रहणीय और बार-बार पठनीय किताब है। बेदार जी के अनुभवों का इलाका बहुत विस्तृत है और उनकी व्यक्तित्व की सरलता उनकी ग़ज़लों में भी है, जिसे बनाये रखने में बहुत श्रम लगता है। उन्होंने कहा कि सहज भाषा में लिखी चीज़ें ही लोगों तक पहुँचती हैं और जिस समाज में संघर्ष होता है वहीं अच्छी रचनाएँ आती हैं। इस अवसर पर बोलते हुए प्रख्यात आलोचक रघुवंशमणि ने कहा कि इन ग़ज़लों पर लंबे समय तक बोला जा सकता है। इन ग़ज़लों में रामजीत जी की विद्वता, व्यक्तित्व और उनके काव्य-कौशल का समन्वय है।
किताब की भूमिका बहुत संक्षिप्त लेकिन प्रभावशाली है, जिसमें उनकी विनम्रता झलकती है। उन्होंने कहा कि जब आप ऐसी परंपरा में लिखते हैं जिसमें कम काम हुआ हो तो लिखना आसान होता है लेकिन ग़ज़ल का दायरा बहुत सुनिश्चित है जो अत्यंत चुनौतीपूर्ण है। ग़ालिब, मीर और फ़ैज़ सहित दुष्यंत कुमार जैसे बड़े शायर जिस विधा के प्रतिनिधि हों, वह एक बड़ी चुनौती हैं। बेदार जी के यहाँ अनुभव, जीवन के प्रतिबिंबन और शैली के स्तर पर परंपरा में कोई न कोई नई चीज़ जोड़ी गई है। पीड़ा के अनुभवों से गुजरते हुए हर बुद्धिजीवी समाज में परिवर्तन के बारे में सोचता है, याराजी ने भी इसका गंभीर प्रयास किया है। उनके अनुसार अनुभव और काव्यकला दोनों यहाँ साफ़ दिखायी पड़ती हैं। उन्होंने कहा कि ‘माज़ी के अक्स’ नामक मुसलसल ग़ज़ल में बेदार जी ने ऐसा वर्णन किया है जैसे कोई संगीतकार बहुत लय के साथ सुर को तान दे। उनके अनुसार विस्मृति की खूबी होती है कि आप अच्छी चीज़ों को याद रखते हैं और बुरी चीज़ों को भूल जाते हैं।
एक अच्छा कवि लोगों की भावनाओं को उभारता है लेकिन एक महान कवि इन भावनाओं को लंबे समय तक निरंतरित कर सकता है। यह संग्रह इसकी पहचान है। उर्दू का लालित्य भी इन कविताओं में दिखाई देता है, कठिन शब्द भी आमद से आए हुए हैं ज़बरदस्ती नहीं। अपने वक्तव्य में याराजी बेदार ने कहा कि मैं मजदूर हूँ, वकालत भी एक तरह कि मजदूरी ही है। उन्होंने कहा कि कभी अपने लिखे से मेरा मन संतुष्ट नहीं होता था, मैंने अपनी क्षमता का उत्कृष्ट देने की कोशिश इस किताब में की है। उन्होंने कहा कि जब मैं बड़े कवियों को पढ़ता था तो मुझे लगता था कि कविता कितनी बुलंद चीज़ है। साहिर लुधियानवी के जीवन और शायरी से मैंने प्रेरणा ली है और समाज की पीड़ा को देखते हुए मैंने शास्त्रों को पढ़ा जिससे मेरी सोच और तार्किक होती गई। मेरी कविता के केंद्र में नारियों और समाज के वंचित तबके का शोषण रहा है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर हुसाम हैदर ने ‘जो सोते हैं उनका ज़िक्र क्या, जो जागते हैं उनमें से बेदार कितने हैं’ कहते हुए कहा कि रामजीत जी की भाषा में एक सहज प्रवाह है। उन्होंने पुस्तक की भूमिका की सीमाओं की तरफ़ भी ध्यानाकर्षण किया।
उन्होंने अल्लामा इक़बाल के शेर के माध्यम से कहा कि बेदार जी की ग़ज़लों में शऊर और फ़िक्र की गहराई बहुत महत्वपूर्ण है और उन्होंने बहुत उम्दा समाजी मसले उठाए हैं। साथ ही उन्होंने उर्दू शब्दों का देवनागरी में तलफ़्फ़ुज़ बहुत बढ़िया लिखा है। कवि-प्राध्यापक डॉ. विशाल श्रीवास्तव ने विषय-प्रवर्तन करते हुए कहा कि उपनिवेशवाद ने हिन्दी और उर्दू के बीच गहरी खाई पैदा की थी। उन्होंने कहा कि बेदार जी ने अपनी किताब को ‘तेग-ए-कलम’ यूं ही नहीं कहा है, उनकी कविताएं सच्चे अर्थों में प्रतिरोध का स्वर रचती हैं। वे समूचे साहस के साथ ‘जलते सवालों तक’ अपनी यात्रा तय करने वाले शायर हैं। बेदार जी की रचनाएं परम्परा, स्मृति, शास्त्र और जीवनानुभव से अपना गहरा रसायन अर्जित करती हैं। उन्होंने किताब की रचनाओं के हवाले से कहा कि बेदार जी की ग़ज़लें किसान, स्त्री, आदिवासी सहित हाशिये के समाज को अपना विषय बनाती हैं लेकिन विषय की विविधता के बावजूद शिल्प और भाषा से कहीं भी समझौता नहीं करतीं, इसी कारण उनकी पठनीयता का आनंद बना रहता है। यह किताब हमेशा अपने सिरहाने रखने वाली एक मूल्यवान कृति है।
जलेस के अध्यक्ष मो. ज़फ़र ने उर्दू कविता के इतिहास के आईने में बेदार जी की रचनाओं की आलोचना प्रस्तुत की। उन्होंने कहा कि अपने कहन और बयान का अलहदा अंदाज उनकी खासियत है। कार्यक्रम का संचालन कर रहे शायर मुजम्मिल फिदा ने कहा कि बेदार जी की कृतियाँ अपने समय के सच का बयान करती हैं। उन्होंने उनकी कुछ रचनाओं को तरन्नुम में प्रस्तुत भी किया। कार्यक्रम संयोजक सत्यभान सिंह ने धन्यवाद ज्ञापन करते हुए बेदार जी की ग़ज़लों के क्रान्तिकारी तेवर को रेखांकित किया और कहा कि आज के समय में जलते सवालों तक का यह सफर मानीखेज है।
लोकार्पण समारोह को वरिष्ठ पत्रकार कृष्णप्रताप सिंह, इंदुभूषण पांडे, वरिष्ठ गजल लेखिका ऊष्मा सजल, लेखक आर डी आनंद, अवधी के वरिष्ठ लेखक आशाराम जागरथ, डॉ नीरज सिन्हा नीर, इल्तिफ़ात माहिर, विनीता कुशवाहा, पूजा श्रीवास्तव, राजीव श्रीवास्तव, अखिलेश सिंह, मांडवी सिंह, मो शफीक, रवींद्र कबीर, मोतीलाल तिवारी, रामदास सरल, परसुराम गौड़, जसवंत अरोरा, शोभनाथ फैज़ाबादी, बृजेश श्रीवास्तव,विजय श्रीवास्तव ,निर्मल गुप्ता,आराधना सिंह,प्रज्ञा पांडे,शोभावती, संदीप सिंह,वरिष्ठ लेखिका स्वदेश मल्होत्रा,बाबूराम गौड़,, सीपीआई नेता अशोक तिवारी,माले नेता अतीक अहमद,समाजसेवी आरजे यादव,रामचरण रसिया ने भी संबोधित किया। समारोह में अतीक अहमद, अशोक कुमार तिवारी, रविशंकर चतुर्वेदी, डॉ प्रदीप कुमार सिंह, बृजेश श्रीवास्तव, महावीर, राम सुरेश, विभा यादव, मधु यादव, समीर शाही, राजीव मतवाला, मो आफाक सहित बड़ी संख्या में साहित्यकार, संस्कृतिकर्मी, समाजसेवी और संभ्रांत नागरिक मौजूद रहे।