एकांगी होकर नष्ट हो जाते हैं भाषा और संस्कृति : प्रो. नलिन रंजन सिंह

by Next Khabar Team
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-जनवादी लेखक संघ, फै़ज़ाबाद के दूसरे ज़िला सम्मेलन पर हुई विचार गोष्ठी

अयोध्या। जनवादी लेखक संघ, फै़ज़ाबाद का दूसरा ज़िला सम्मेलन रविवार को स्थानीय आभा होटल के सभागार में आयोजित किया गया। सम्मेलन के प्रथम सत्र में ‘साझा विरासत, पक्षधरता और साहित्य’ विषय पर एक विचार-गोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसमें साथी संगठनों के वक्ताओं ने भी अपने विचार प्रस्तुत किए। इस सत्र की अध्यक्षता कर रहे हिन्दी के चर्चित कवि एवं लेखक स्वप्निल श्रीवास्तव ने कहा कि भारत में हमेशा से संस्कृतियों का साझा स्वरूप विद्यमान रहा है।

अपने गाँव में भरथरी के पद गाने वाले जोगियों का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा कि हमारे लिए उस समय यह अंतर करना मुश्किल था कि कौन हिन्दू है और कौन मुसलमान और उसका कारण था भारतीय समाज में लम्बे अरसे से मौजूद साझा संस्कृति। उन्होंने कहा कि भारतीय इतिहास की बहुत सी तारीखें बहुत महत्वपूर्ण हैं जिनसे गुजरते हुए आप समाज के निरंतर हिंसक होते जाने की प्रक्रिया को अनुभव कर सकते हैं।

इस प्रक्रिया ने समाज में भाईचारे की संस्कृति को लगातार समाप्त करने का काम किया है। आज यह समझने की ज़रूरत है कि हमें किस तरह बरगलाया जा रहा है और वैचारिक तरीके से गु़लाम बनाया जा रहा है। ऐसे समय में साहित्यकारों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है हालांकि एक चुनौती यह भी हमारे सामने है कि अवसरवादी लेखक निरंतर अपना पाला बदलते जा रहे हैं, जिसका प्रभाव समाज और संस्कृति पर भी पड़ता है।

सम्मेलन में पर्यवेक्षक के रूप में पधारे जनवादी लेखक संघ, उ.प्र. के राज्य सचिव प्रो. नलिन रंजन सिंह ने कहा कि ऐतिहासिक रूप से भारत में सांस्कृतिक विविधता का समन्वय एक समृद्ध परम्परा के रूप में मौजूद रहा है। उन्होंने साहित्यिक परम्परा की बात करते हुए कबीर और रैदास का उदाहरण देते हुए कहा कि भक्ति आंदोलन भी सबको साथ लेकर चलने की बात करता है। उन्होंने कहा कि यह रेखांकित करने वाली बात है कि तुलसीदास का रामचरितमानस भी अपने काव्यशिल्प में सूफी प्रेमाख्यानक-परम्परा से प्रेरणा ग्रहण करता है, यह समन्वय का ही प्रतीक है।

तुलसी यूँ नहीं लिखते कि ‘मांगि कै खैबो मसीत को सोइबो, लैबे को एक न दैबे को दोऊ’। प्रो. नलिन रंजन ने कहा कि राजतंत्र का समय होते हुए भी वह समय कितना उदार था कि कुम्भनदास बादशाह अक़बर के सामने ‘संतन को कहा सीकरीं सो काम’ जैसी पंक्ति कह सकते थे, वहाँ सत्ता के प्रतिरोध का वह स्पेस मौजूद था, जो कई बार लोकतंत्र में भी उपलब्ध नहीं हो पाता है।

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उन्होंने तुलसीदास के मित्र और उनकी सहायता करने वाले कवि रहीम और कृष्णोपासक मुस्लिम कवि रसखान का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए कहा कि वह पूरा दौर ही समन्वय और साझा संस्कृति का था। प्रो. नलिन रंजन ने कहा कि हमें उस विरासत को याद करने की ज़रूरत है, जिसे अपनी स्मृति में स्थायी रूप से बनाये रखने की ज़रूरत है।

उनके अनुसार कोई भी भाषा या संस्कृति जब एकांगी हो जाती है, तो वह नष्ट हो जाती है। उन्होंने कहा कि राजनैतिक ताकतों द्वारा आज किये जा रहे समाज के बँटवारे का असर हम अपने समाज, संस्कृति और साहित्य पर न पड़ने दें, यही साझा विरासत, पक्षधरता और साहित्य को बचाए रखने की दिशा मे सबसे ज़रूरी प्रयास है।

गोष्ठी में मुख्य वक्ता के रूप में प्रो. रघुवंशमणि ने कहा कि आज के इस मुश्किल समय में ऐसे लेखकों की ज़रूरत है जो धर्म और राजनीति के पाखंड में व्याप्त सच और झूठ को अलग-अलग कर जनता के समक्ष प्रस्तुत कर सकें। उन्होंने कहा कि यही वास्तविक प्रतिबद्धता का सवाल है जो बहुत पुराने समय से मौजूद रहा है। उन्होंने मुक्तिबोध का हवाला देते हुए कहा कि जब वे पूछते हैं कि ‘पार्टनर! तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?’, तो वे प्रतिबद्धता का सवाल ही उठा रहे होते हैं।

उनके अनुसार प्रेमचंद की साम्प्रदायिकता के सम्बंध में जो दृष्टि है, वह ऐसे लेखक की ही दृष्टि है जो सचाई बता रहा है, वे यूँ ही नहीं कहते कि साम्प्रदायिकता संस्कृति की खाल ओढ़कर आती है। प्रेमचंद ने इसे एक आसन्न विपदा के रूप में देखते हुए इसके ख़तरों को बहुत पहले पहचान लिया था। नागार्जुन भी अपनी कविता में प्रतिबद्धता का सवाल उठाते हैं।

उनके अनुसार जब समाज के समक्ष बड़े प्रश्न उपस्थित होते हैं तो प्रतिबद्ध लेखक संगठनों की ज़रूरत सामने आती है। प्रो. रघुवंशमणि के अनुसार आज एक बड़ी समस्या है कि सामाजिक संस्थाओं को राजनीति संस्थाओं में बदल दिया जा रहा है, जिससे उनकी मूल्यवत्ता में ह््रास होता जा रहा है। उनके अनुसार हमारे समाज में जो सांस्कृतिक स्पेस मौजूद था वह धीरे-धीरे खत्म होता जा रहा है, जिसके कारण प्रतिबद्धता का प्रश्न समाज के लिए और अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है।

प्रो. रघुवंशमणि ने कहा कि साझा संस्कृति को बचाने का अर्थ है संविधान को बचाना, धर्मनिरपेक्षता को बचाना, लोकतंत्र को बचाना और इन सारी चीज़ों को बचाने के लिए साहित्य में प्रतिबद्धता का प्रश्न अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है।

इससे पूर्व गोष्ठी का आधार वक्तव्य प्रस्तुत करते हुए डॉ. विशाल श्रीवास्तव ने कहा कि साझा विरासत के बारे में फै़ज़ाबाद जैसी जगह से बात करना अपने आप में बहुत ख़ास है। उन्होंने कहा कि यह शहर 1857 की क्रान्ति के नायक मौलवी अहमदुल्लाह शाह की कर्मभूमि और भगत सिंह के साथी क्रांतिकारी अशफाक़ उल्लाह खान की शहादत का शहर है।

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साथ ही सांस्कृतिक रूप में यह मीर अनीस और बृजनारायण चक़बस्त की भी धरती है। डॉ. विशाल ने कहा कि 1763 के संन्यासी विद्रोह से लेकर 1857 की क्रांति और स्वतंत्रतापर्यंत चले आज़ादी के आंदोलन में हिन्दुओं और मुस्लिमों ने साथ मिलकर लड़ाई लड़ी। अंग्रेजों ने अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए जो फांक पैदा की वह दुर्भाग्य से गहरी होती गई और उसकी परिणति द्विराष्ट्र सिद्धांत और भारत के विभाजन के रूप में हुई। उन्होंने कहा कि आज यह संकट और बड़ा क्योंकि आज यह अलगाव केवल राजनैतिक नहीं बल्कि सांस्कृतिक स्वरूप ग्रहण कर चुका है, जो समाज के लिए बड़ा ख़तरा है। उनके अनुसार प्रतिबद्ध साहित्य लगातार इन संकटों को दर्ज़ करता रहा है और वही एक ऐसा माध्यम है जिससे साझा विरासत को बचाया जा सकता है।

कवि-आलोचक और विचारक डॉ. आर.डी. आनंद ने कहा कि समाज के हर वर्ग में रोटी, कपड़ा और दवा-इलाज़ की समस्याएँ समान रूप से मौजूद हैं। हमारी सांस्कृतिक पहचान भले अलग हो, लेकिन हमारे सामने चुनौती के रूप में मौजूद खतरे एक ही हैं। आज साहित्यकारों के सामने अगर मुक्तिबोध की कविता का अंधेरा उपस्थित नहीं होता तो ऐसा साहित्य असल साहित्य कैसे हो सकता है? उनके अनुसार प्रेमचंद के अनुसार साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है, तो यह एक महत्वपूर्ण बात है।

डॉ. आर. डी. आनंद ने कहा कि हम सौंदर्य और प्रेम की कविताओं को भी लिखते हैं, लेकिन हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारी अंतःचेतना हमें निरंतर ऐसा साहित्य लिखने को प्रेरित करती है, जो क्रांति का वाहक हो। अगर कोई साहित्य हमें इस दिशा में प्रेरित नहीं कर पाता तो ऐसा साहित्य बंजर कहा जाएगा। उन्होंने स्पष्ट किया कि प्रतिबद्धता से रहित रचनाकार पूंजीवाद का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से पोषक ही होता है।

कवयित्री लेखिका विनीता कुशवाहा ने कहा कि आज कलम चलाना बहुत साहस का काम है, जब हर शब्द पर नज़र हो और हर कहे पर ख़तरा मंडराता हो। उन्होंने कहा कि जब राजनीति भटकती है, तब साहित्य ही एक तीर की तरह मर्मस्थल पर लगता है। विनीता कुशवाहा ने पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या को याद करते हुए कहा कि असहमति के कारण किसी की हत्या कर दिया जाना आज के विपरीत समय में ही सम्भव है।

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उन्होंने कहा कि विचारधारा इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि वह भी विरासत के रूप में बल्कि एक वैचारिक सम्पत्ति के रूप में व्यक्ति के पास सुरक्षित रहती है। युवा कवि और शोधछात्र आकाश ने कहा कि प्रतिबद्ध रचनाकार को अपने समय की परिस्थितियों और समस्याओं को हल करने के लिए वैचारिक स्वतंत्रता और सांस्कृतिक साझेपन का पक्षधर होना ही चाहिए।

आकाश के अनुसार आज का समय धर्म के आधार पर विरासत के ध्रुवीकरण पर आमादा है। उन्होंने विशेषतः हिन्दी कविता की वरिष्ठ पीढ़ी से लेकर युवा पीढ़ी के उदाहरण देते हुए स्पष्ट किया कि साहित्य सदैव इन चुनौतियों का मुकाबला करता है और आज भी कर रहा है। संगठन के कार्यकारी अध्यक्ष मो. जफर ने कहा कि साहित्य के मौलिक स्वरूप को बचाये रखते हुए उसके सामाजिक सरोकारों को जाग्रत रखना बेहद ज़रूरी है।

सम्मेलन के दूसरे और सांगठनिक सत्र में सचिव द्वारा पिछले ज़िला सम्मेलन से अबतक की गतिविधियों की रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसे सर्वसम्मति से पारित किया गया। पर्यवेक्षक प्रो. नलिन रंजन सिंह के निर्देशन में जनवादी लेखक संघ, फ़ैज़ाबाद की नये पदाधिकारी मंडल और कार्यकारिणी का गठन किया गया। संरक्षक मण्डल में रामजीत यादव ‘बेदार’, रामदुलारे बौद्ध, घनश्याम जी, रामदास ‘सरल’, और पदाधिकारी मण्डल में मोहम्मद जफर को अध्यक्ष, डॉ. नीरज सिन्हा ‘नीर’, विनीता कुशवाहा और जे. पी. श्रीवास्तव को उपाध्यक्ष, डॉ. विशाल श्रीवास्तव को सचिव, मुजम्मिल फिदा को कोषाध्यक्ष/कार्यकारी सचिव, राजीव श्रीवास्तव, पूजा श्रीवास्तव और मांडवी सिंह को संयुक्त सचिव तथा कार्यकारिणी सदस्य के रूप में सत्यभान सिंह, इल्तिफात माहिर, अखिलेश सिंह, वाहिद अली, शोभा अक्षर, आर.एन.कबीर को उत्तरदायित्व सौंपा गया।

ज़िला सम्मेलन में स्वागत वक्तव्य प्रस्तुत करते हुए कवि-शायर मुज़म्मिल फिदा ने गंगा-जमुनी तहज़ीब को रेखांकित करते हुए कहा कि जनवादी साहित्य निरंतर लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा में सन्नद्ध रहा है। धन्यवाद ज्ञापन करते हुए कार्यक्रम के संयोजक सत्यभान सिंह जनवादी ने कहा कि धर्मों और संस्कृतियों की विभिन्नता के बावजूद भारत ने अपनी साझा विरासत को बचाए रखा है। देश की आज़ादी के लिए हर धर्म, क्षेत्र और संस्कृति के शहीदों ने अपनी कुर्बानी दी है। कार्यक्रम का संचालन जनवादी लेखक संघ की सदस्य और कवयित्री मांडवी सिंह ने किया।

इस अवसर पर जनमोर्चा की सम्पादक डॉ. सुमन गुप्ता, शिक्षक और विचारक कमलेश यादव, गंगाराम मौर्य, ज्ञान प्रकाश यादव, ओमप्रकाश रौशन, सृष्टि श्रीवास्तव, महावीर पाल, मोनिका श्रीवास्तव, अरुण कुमार, शिवशंकर सहित संगठन के सदस्य और शहर के लेखक-बुद्धिजीवी और संस्कृतिकर्मी उपस्थित रहे।

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