होम्योपैथी में मायज्म रोगोत्पत्ति का माना गया है मूलकारक: डाॅ. उपेन्द्र

by Next Khabar Team
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आरोग्य भारती द्वारा विश्व आर्थराइटिस दिवस पर हुआ स्वास्थ्य प्रबोधन

फैजाबाद। जोड़ों और इससे सम्बंधित संरचनाओं को प्रभावित करने वाली ऐसी शोथकारक स्थिति है जिसमें कार्यिकी और संरचनात्मक विकार से बहुत सारे लक्षण समूह मिल सकते हैं । होम्योपैथिक उपचार के दौरान रोग में पीड़ित व्यक्ति को समझने के लिये पारिवारिक , आनुवंशिक, या व्यक्तिगत इतिहास , आदतों, जीवन शैली, पूर्व में हुए रोगों व उनकी चिकित्सा, उसके व्यक्तित्व को जानना समझना और परखना बेहद जरूरी है।
विश्व आर्थराइटिस दिवस पर आरोग्य भारती द्वारा आयोजित स्वास्थ्य प्रबोधन कार्यशाला में प्रंतीय सदस्य व होम्योपैथी महासंघ के महासचिव डॉ उपेन्द्र मणि त्रिपाठी ने कहा होम्योपैथी में मायज्म को रोगोत्पत्ति का मूलकारक माना गया है जो भिन्न भौतिक परिस्थितियो जैसे हड्डी या जोड़ो पर किसी औजार, हथियार, वाहन आदि से लगी चोट,मोच, दुर्घटना, कोई शल्य क्रिया अथवा मौसम की नमी या तापमान आदि से प्रभावी हो सकता है। होम्योपैथी के अनुरूप यह रोग की पहचान चार प्रकार सोरा ,साइकोसिस, सिफिलिस और ट्यूबरकुलर के रूप मेंकी जाती है।
सोरा के रोगी ज्वलनकारी पीड़ा का प्रदर्शित लक्षण देखने को मिलता है व रक्त जाँच में पोलीमोर्फोन्यूक्लिओसाइट्स की बृद्धि देखी जा सकती है। प्रभावित जोड़ो में सूजन, लालिमा, दर्द, ज्वर, आदि, साइकोसिस में बड़ी छोटी सभी अस्थियों के जोडों पर लवणों के जमा होने , फाइब्रोसिस की प्रवृत्ति, नमी, बरसात , सुबह, दिन में, आराम के वक्त, सर्दी में बढ़ जाती है उनमें में चीरने, चुभने, भेदने जैसा दर्द आस पास के लिगमेंट्स व मांसपेशियों तक दिखने वाली सूजन, उठते बैठते, झुकते, चलने की शुरुआत में तकलीफ मिलती है, तो सिफलिस के कारण गोली मारने जैसा, चीरने फाड़ने जैसा तेज दर्द जो कि अक्सर रात में बिस्तर की गर्मी से बढ़ता है, ठण्डी हवा, या पानी डालने से आराम होता है।इसी प्रकार ट्यूबरकुलर प्रकार में लक्षण मध्यम तीव्रता के साथ , निरन्तर स्थान व स्वरूप बदलने वाले होते हैं। तथा जाँच में मोनोसाइट्स,व लिम्फोसाइट्स की उपस्थिति होती है, ग्रैन्यूल्स और फाइब्रोसिस सी संरचनात्मक विकृतियां प्रभावित जैसे मेरुदण्ड की अस्थियों के जोड़ो में दिखती हैं। इस श्रेणी में ऑस्टियोपोरोसिस के बाद कैल्सिफिकेशन, ऑस्टियोस्क्लेरोसिस, रह्यूमटोइड आर्थराइटिस, रूमेटिक फीवर, एसएलइ, स्पान्डयलोसिस, आदि रोगों को सम्मिलित किया जा सकता है।

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