गुम होती जा रही लोक शिल्प कला

–हमें बांस कलाकार कहते हैं’ सरकार! हमें धरकार कहते हैं

गोसाईगंज। आधुनिक युग में बाजारवादी संस्कृति के चलते लघु एवं कुटीर उद्योगों पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। हमारी लोक शिल्प कला एक-एक करके दम तोड़ती जा रहीं हैं। धरकार समाज के लोग जो बांस की खपच्चियों से अपनी कला को विविध आयाम देते हैं।
प्रकृति प्रदत्त वस्तुओं से मानव समाज अपनी आवश्यकताओं की जहां पूर्ति करता है। बांस, ताड़, और सरई से बनी हुई कुछ ऐसी वस्तुएं हैं, जो लोक शिल्प के सुंदर उदाहरण हैं। आधुनिक युग में प्लास्टिक के प्रचलन से इस पर भी काफी असर पड़ा है। प्लास्टिक उद्योग ने जहां कुम्हारों के पेट पर लात मारा है वहीं बांस से निर्मित शिल्प कला का सृजन करने वाले धरकार जाति की रोजी रोटी पर भी पड़ा है। धरकार जाति के लोग बंजारा जीवन के उदाहरण हैं, यानि इनका स्थायी निवास नहीं होता है, आज कहीं और तो कल कहीं और ठिकाना बना लेते हैं। हालांकि कुछ स्थायी रूप से झोपड़ियां बनाकर कर नगर व कसबों के पास में रहते है। जहां झोपड़ी में लोक शिल्प का सृजन कर अपनी जीविकोपार्जन कर रहे हैं। सरकार की कोई भी योजना जो गरीबों के लिए आता है, वह ब्लाक मुख्यालय से होकर ही जाती है, परंतु विकास खंड मुख्यालय से चंद दूरी पर रह रहे धरकार जाति को एक भी सरकारी सुविधा का लाभ नहीं मिल पा रहा है। धरकार जाति बांस से बेना, दउरी, सूप, झाबा, डोलची, ढोकरी, चटाई के साथ-साथ पूजा-पाठ के लिए पवित्र आसनी तथा विवाह में प्रयुक्त होने वाला डाल और झपोली बनाते हैं। लेकिन अब बांस भी महंगाई की भेंट चढ़ गया है, जो बांस पहले 40 से 50 रुपये में मिल जाता था। वहीं अब 100 रुपये से कम में नहीं मिलता है। इसके साथ ही बांस की खेती भी नहीं हो रही है। जिसके कारण बड़ी मुश्किलों से बांस मिल पाता है। गोसाईगज के महेन्द्र बबूल राजेन्द्र आदि धरकार समाज का कहना है कि इस महंगाई में पूरी मेहनत के बाद में भी एक आदमी बड़ी मुश्किल से 40 से 50 रुपये ही कमा पाता हूं। यदि अन्य धन्धों की तरह से इस धन्धों को सरकार की तरफ से प्रोत्साहित किया जाय तो धरकार जाति का भी विकास हो सकता है।

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