अटकलबाजी युक्त जोरदार बहस तथा वार्तालाप की मनोदशा से भी मतदान के दिन लोग हो सकतें हैं आसक्त
ब्यूरो। मतदान का दिन प्रत्याशियों के मन पर एक रहस्यमयी कौतूहल व भयाक्रान्त भरी मनोदशा हावी हो सकती है जिससे वह हर एक मतदाता को अपेक्षा व शकभरी निगाहों से देखने लगता है। इतना ही नहीं, प्रत्याशी का मन अनचाहे विरोधाभाषी विचारों व मनोंभावों के बीच इस प्रकार झूलता रहता है, जैसे घड़ी का पेन्डुलम। इस मनोद्वन्दसे उत्पन्न मानसिक रस्साकशी में प्रत्याशी की मानसिक ऊर्जा क्षीण होती रहती है तथा मस्तिष्क में तनाव उत्पन्न करने वाले रसायन कार्टिसॉल का स्राव बढ़ने से मनोशारीरिक रूग्णता के शिकार होने की सम्भावना बढ़ जाती है। जिससे कि झुंझलाहट, चिड़चिड़ापन, अति-क्रोध, अनिद्रा, सरदर्द, उलझन, बेचैनी, ब्लडप्रैशर व शुगर का बढ़ना, दिल की धड़कन बढना व पेट खराब होना जैसे लक्षण भी दिखायी पड़ सकते हैं। जिला चिकित्सालय के युवा मनोपरामर्शदाता डॉ0 आलोक मनदर्शन ने मतदान के दिन प्रत्याशियों की इस मनःस्थिति को ‘‘इलेक्टोन्यूरोसिस’’ नाम से परिभाषित किया है।
साथ ही , अग्रगामी शोध के आधार पर डा मनदर्शन ने बताया कि मतदान के दिन की अटकलबाजी युक्त जोरदार बहस व रुझान घटनाक्रम के बारे में अपने मत को दूसरों को सुनाने हेतु युवा वर्ग मतदाता व पार्टी कार्यकर्ता के आतुर दिखने की भी प्रबल सम्भावना होती है । चाहे मोबाइल पर होने वाली बातचीत हो अथवा सोशल मीडिया, इन सभी पर राजनैतिक स्वसमीक्षाओं का दौर व पल पल के घटनाक्रम को लोग बड़ी तत्परता से स्वविश्लेषण सहित आदान प्रदान करते हुये देखे जा सकते हैं। सार्वजनिक स्थलों व चाय पान की दुकानों में भी चर्चाओं व बहसों का दौर देखा जा सकता है। कुल मिलाकर लोगों में एक कातूहल और जिज्ञासा भरी आवेशित मनोदशा का मिश्रण देखने को मिलने की बहुतायत हो सकती है । गौरतलब पहलू यह है कि अपनी बात को एक दूसरे से साझा करके मन को हल्का करने की मनोदशा लोगों पर अतिहावी दिख सकती है ।इस मनोदशा को हाईपर-लोक्वेन्सी तथा इस मनोदशा से ग्रसित लोगों को हाईपर-लोक्वेन्ट कहा जाता है। इसके साथ ही अति आवेशित बहस में मनोथकान हो जाने पर उनमें बर्न-आउट सिन्ड्रोम पैदा हो सकता है जिससे उनमें चिडचिडापन, हड़बड़ाहट, सरदर्द,उन्मादित व अवसादित व्यहार जैसे लक्षण भी दिखाई पड़ सकतें हैं।
♦मनोगतिकीय विश्लेषण व बचाव-
डा. आलोक मनदर्शन के अनुसार आवेशित मनोदशा में कार्टिसाल एवं एड्रिनलिन मनोरसायनों का श्राव बढ़ जाता है, जिससे ज्यादा बोलने, अपनी बात को पूरा कर डालने का एक मादक खिचाव इस प्रकार हो जाता है कि मन बार-बार एक ही बात को भिन्न भिन्न लोगों से परिचर्चा करने को बाध्य हो जाता है। भले ही हमारा मन व शरीर कितना ही थक चुका हो। परिचर्चा और वार्तालाप एक सीमा तक तो हमारे मन और शरीर के लिए फायदेमन्द साबित होता है, परन्तु इसकी अधिकता हमारे मनो शारीरिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि बात-चीत व वार्तालाप के मनोखिचांव को सीमित दायरे में ही रखा जाये तथा हाईपर-लोक्वेन्सी के आगोश में न आकर मन व शरीर को भी विश्राम देने पर ध्यान दिया जाये।साथ ही प्रत्याशी भी मनोसंयम व धैर्य रखते हुए अपनी मानसिक स्थिति के प्रति सजग रहते हुए अनासक्त भाव से मनोद्वन्द को उदासीन करें।