राजभाषा हिन्दी और हिन्दी-दिवस

by Next Khabar Team
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दुर्भाग्य की बात यह है कि यह ‘हिन्दी-दिवस’ न होकर ‘हिन्दी का श्राद्ध-दिवस’ बनता जा रहा है। हिन्दी सहित संविधान मान्य समस्त भारतीय अर्थात् राष्ट्रीय भाषाएँ उपेक्षित तथा अपमानित हैं और अंग्रेजी राजसिंहासन पर बैठी देशवासियों के ऊपर हावी होती जा रही है। कैसा रहा हागा वह समय जो भारत की जनभावना से भरा होगा? राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन, डॉ0 रघुवीर, सेठ गोविन्ददास, शिब्बनलाल सक्सेना, धुलेकर, अलगूराय शास्त्री सहित संविधान सभा के अधिकांश सदस्यों ने स्वाधीन भारत की ‘स्वभाषा की अनिवार्यता का प्रतिपादन किया था कि ‘हमारा देश हमारी अपनी भाषा में बोले। वह अपने ‘जीवन का अपना व्याकरण बनाए।

 

           डॉ. अर्चना त्रिपाठी

14 सितम्बर 1949 । भारत की संविधान सभा ने इसी दिन हिन्दी को राष्ट्र, राज्य की भाषा स्वीकार किया था, तभी से इसे ‘हिन्दी-दिवस’ होने का गौरवपूर्ण सौभाग्य प्राप्त हुआ। गत 70 वर्षो से हम बिना किसी व्यवधान के हिन्दी-दिवस मनाते आ रहे हैं। भाषण, लेख और पुनः संकल्प के साथ हिन्दी-दिवस मानाने का कार्य करते है। पर दुर्भाग्य की बात यह है कि यह ‘हिन्दी-दिवस’ न होकर ‘हिन्दी का श्राद्ध-दिवस’ बनता जा रहा है। हिन्दी सहित संविधान मान्य समस्त भारतीय अर्थात् राष्ट्रीय भाषाएँ उपेक्षित तथा अपमानित हैं और अंग्रेजी राजसिंहासन पर बैठी देशवासियों के ऊपर हावी होती जा रही है। कैसा रहा हागा वह समय जो भारत की जनभावना से भरा होगा? राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन, डॉ0 रघुवीर, सेठ गोविन्ददास, शिब्बनलाल सक्सेना, धुलेकर, अलगूराय शास्त्री सहित संविधान सभा के अधिकांश सदस्यों ने स्वाधीन भारत की ‘स्वभाषा की अनिवार्यता का प्रतिपादन किया था कि ‘हमारा देश हमारी अपनी भाषा में बोले। वह अपने ‘जीवन का अपना व्याकरण बनाए। अंग्रेजी के गणित में फसं कर गडब़ड़ाए और डगमगाए नहीं।’ तब के लोगों को राष्ट्र की समझ थी। वे अपने देश के आखिरी आदमी के साथ जुड़े हुए लोग थे। उन्हें उसके पावों की बिवाइयों के दर्द का अनुभव था। वे जानते थे कि भारत की अपनी भाषा है। उसका अपना मन है। अपनी आकांक्षा है। सबसे भिन्न अपना एक कालानुभूत ‘जनपथ’ है। यहाँ उस पर से होकर ही गुजरना होता है। उस समय संविधान सभा के अध्यक्ष थे देशरत्न डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद। बाद में वे गणतन्त्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति बने थे। उस समय हमारे यहाँ राजनीति की भाषा नहीं बिगड़ी थी और न ही भाषा की राजनीति शुरू हुई थी। जैसा कि वर्तमान समय में इसके बिल्कुल विपरीत सा होता दृष्टिगत होता है।

कुछ वर्ष पहले ं आक्सफोर्ड विश्ववि़़द्यालय ने प्रधानंत्री डॉ0 मनमोहन सिंह को डाक्ट्रेट की उपाधि प्रदान किया। जो कि अस्वाभाविक नहीं थी कि इस अवसर पर उन्हें देश व इतिहास के गौरव को और ऊँचा उठाने की चेष्ठा करनी चाहिए थी, क्येंकि उनको यह सम्मान एक महान् गणतन्त्र का राजप्रमुख होने के नाते ही मिला था। उन्होंने अंग्रेजों के गुणगान में मन्तव्य दिया -‘जब भारत पर आपका शासन था तब भी आपका सूर्य नहीं डूबता था। समस्त देशों के आप स्वामी थे। आज भी आपका सूर्य अस्त नहीं होता। अंग्रेजी भाषा विश्व भाषा हो गई और हमने भी उसी भाषा को अपनाकर आपके सूर्य को अस्त होने से बचा लिया। भारतीय संविधान की प्रथम मुद्रित प्रतियों को देखकर ऐसा लगता है कि जैसे भारत का भावलोक उसमें पूरी तरह रूपायित हो उठा हो। उसके पृष्ठों पर श्रीराम, श्रीकृष्ण, गौतमबुद्ध आदि भगवत स्वरूप प्रेरणा पुरूषों और भारतीय प्रजा के प्रतिनिधियों का चित्रांकन किया गया था। उसमें अतीत, वर्तमान व भविष्य तीनों की दृष्टि थी। स्वाधीन भारत के जीवन रथ को बहुत ही सहज रूप से अपने लक्ष्य की ओर ले जाया जा रहा था कि उसी समय पश्चिमी सोच का अवरोध आ गया, देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के इस कथन और उन्हीं के द्वारा प्रस्ताव से कि -‘अभी नहीं, पन्द्रह वर्ष बाद हिन्दी भारत की राजकाज और सम्पर्क भाषा का स्थान लेगी तब तक सभी कार्य अंग्रेजी में यथावत् होते रहेंगे।’ सम्भवतः यह पहला अवसर था जब भारत के सर्वोनच मंच पर राजनीति की भाषा ही नहीं बिगड़ी भाषा की राजनीति का भी जन्म हुआ जो अब तक देखने को मिल रहा है। बाद में इसी विष-बीज में से प्रगता या भाषाई राज्य पुर्नगठन आयोग और भाषा के आधार पर राज्यों की रचना।

भाषा के आधार पर राज्यों के निर्माण ने देश का भाषाई विभाजन किया। कांग्रेस ने मजहबी विभाजन स्वीकारा था तो पाकिस्तान बना था। उसने भाषाई विभाजन स्वीकार किया तो अनेक भाषाई अस्मिताएँ राष्ट्रीय अस्मिता के लिए राजनीतिक चुनौती बनकर खड़ी हो गयी। अति प्राचीनकाल से एक और देश बन गया। भारत के सुब्रहण्य भारतीय तमिल, बंकिमचन्द्र और रविन्द्रनाथ ठाकुर केवल बंगाली हो गये, जयशंकर प्रसाद, मैथिलीशरण गुप्त, सुभद्राकुमारी चौहान, निराला, रामधारी सिंह ‘दिनकर’ और महादेवी वर्मा आदि केवल हिन्दी और उमाशंकर जोशी, दुर्गा भागवत आदि केवल गुजराती तथा मराठी। देश की भावात्मकता को भाषाई जंजाल में उलझा दिया। जिस बंगाल से हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का आन्दोलन एवं अनुष्ठान आरम्भ हुआ था उसकी राष्ट्रीय दृष्टि को बंगाल तक ही सीमित कर दिया गया। जो कार्य तत्काल होना था, जो सम्पन्न हो चुका था, पन्द्रह वर्ष की इस अवधि ने उस किये पर पानी फेर दिया अर्थात् उसे अनदेखा छोड़ दिया। देशवासियों के मन में क्षेत्रीय भाषाओं और क्षेत्रीयता का विभाजक अर्थात् अलगाववादी बीज बोया गया कि हम उससे या इससे भिन्न कुछ विशेष है, हमें हमारा हक चाहिए। बनवास के चौदह वर्ष पूरे होते ही श्रीराम अयोध्या या वापस आ गये थे, परन्तु 15 वर्ष पूरे होने के बाद ‘हिन्दी’ की ‘दिल्ली’ वापसी नहीं हुई। 26 जनवरी सन् 1965 को 15 वर्ष पूरे होने थे। उसी दिन ’हिन्दी’ अंग्रेजी का स्थान ग्रहण करने वाली थी। उसका राजतिलक होना था। 1952-53 में गठित पुर्नगठन आयोग की सिफारिशों के आधार पर निर्मित भाषाई राज्यों की अपनी-अपनी अस्मिताओं का अहम आड़े आया। पन्द्रह वर्ष से लगातारयह सुनते-सुनते कि – ‘हिन्दी किसी पर थोपी नहीं जायेगी।’ विभिन्न भाषाई राज्यों के मन में हिन्दी के प्रति परायापन और प्रतिद्वन्दी भाव पांव जमा चुका था।

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26 जनवरी 1965 के पूर्व ही देश के विभिन्न राज्यों विशेषतः तमिलनाडु में ‘हिन्दी’ के विरोध में हिंसा, अग्निकाण्ड और आत्मदाह आरम्भ हो गया तो दिल्ली से नेहरू जी चीखे-‘हिन्दी को राजकाज और सम्पर्क भाषा तब तक नहीं बनाया जायेगा, जब तक देश के सभी राज्यों की आम सहमति नहीं हो जाती’ और हिन्दी का राज्यारोहण अन्नततः और अज्ञात काल तक के लिए टाल दिया गया। उसमें आवश्यकता और अनिवार्यता नहीं केवल एनिछकता है। अनिवार्य है केवल अंग्रेजी। देश केवल तीन प्रतिशत की पठित भाषा अंग्रेजी शेष सत्तानबे प्रतिशत पर शासन इसलिए कर रही है कि भारतीय भाषा-भाषियों ने भाषा को वोट और सत्ता प्राप्ति का सटीक साधन बना लिया है और हिन्दी तथा भारतीय भाषाओं के बीच पैदा की गयी भाषाई शत्रुता का लाभ उठाकर अंग्रेजी दलाली करते हुए देश पर शासन कर रही है। जिन्हें देश का कंठहार होना चाहिए था, जिन भाषाओं में हमारी देशमता को बोलना चाहिए वे भाषाएं तिरस्कृत और अंग्रेजी पुरस्कृत है तो केवल इसलिए कि हमारे देश की भाषाओं और भावनाओं का राजनीतिकरण कर दिया गया है। राजनीति के अतिरिक्त हमें कोई और भाषा समझ में ही नहीं आती। यह कैसी विडम्बना है कि वोट मांगने की भाषा हिन्दी और भारतीय भाषाएं हैं और राजकाज की भाषा अंग्रेजी। वोट मांगते है तमिल, तेलगू, मलयालम्, मराठी, गुजराती, उड़िया, असमिया व पंजाबी भाषा में, पर शासन चलाते हैं अंग्रेजी में। देश की भाषा कुछ और है, शोध की भाषा कुछ और। देशवासियों की भाषा कुछ और है तो विज्ञान की भाषा कुछ और। देशवासी राष्ट्र के पुनः निर्माण और विकास की प्रक्रिया में पूरे मन और पूरी समझ के साथ सहभागी नहीं हो पाते तो इसलिए भी कि हम उनकी भाषा में उन्हें वह समझा ही नहीं पा रहे हैं कि ‘हम क्या चहते है’? इस बात का एक उदाहरण द्रष्टव्य है जो अभी हाल ही में आया था।

देश के अनेक आयोगों की सिफारिश है कि बनचों को प्राथमिक शिक्षा उनकी मातृभाषा में ही दी जाए। पाठशाला और सहज रूप में करना दुष्कर होगा। वे अपने परिवेश से कट जायेंगे। उनके मूल मन पाठशाला में पढ़ाई जाने वाली और परिवार में बोली जाने वाली भाषा में भिन्न भाषाई मुहावरों के साथ कोई तालमेल नहीं होगा तो बनचों के ही नहीं, देश के जीवन की भाषा का भी व्याकरण बिगड़ जाएगा, किन्तु जिन्हें इस सिफारिश का क्रियान्वयन करना है वे इसकी तरफ देखते ही नहीं। और तो और राष्ट्रीय अस्मिता की कसमें खाने वाली राष्ट्रीय पार्टियां भी इस ओर से उदासीन हैं। राजधानी क्षेत्र दिल्ली इसका प्रमाण है। प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में होने की आवश्यकता की घोषण करने वाली भाजपा की चांदला समिति ने सिफारिश की भी कि प्राथमिक कक्षा से अंग्रेजी की शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए जो बालक अंग्रेेजी नहीं पढ़ना चाहते उन पर अंग्रेजी क्यों थोपी जा रही है?

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यदि अपने देशवासियों की आम राय के बिना राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी भाषा प्रचलित नहीं किया जा सकता तो क्या अंग्रेजी की अनिवार्यता के पक्ष में दिल्ली वासियों की आम राय है? या केवल कुछ अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों, नौकरशाहों ओर अंग्रेजी अखबारों के दबाव तथा शोर-शराबा से डरकर दिल्ली की सरकार दिल्ली वासियों के बनचों पर अंग्रेजी भाषा की अनिवार्यता थोपकर उनकी प्रतिभा को कुण्ठित और उन्हें गुलाम बनाना चाहती है। देश की भावी पीढ़ियों को अंग्रेजी भाषा का गुलाम बनाकर क्यों रखना चाहती है? चौदह सितम्बर को ‘हिन्दी-दिवस’ मनाना या मनाया जाना अनुचित नहीं है, अनुचित है उसे ‘कर्मकाण्ड’ और ‘श्राद्ध’ का स्वरूप प्रदान करना। प्रत्येक वर्ष चौदह सितम्बर को हिन्दी की प्रतिष्ठा में वृद्धि न करके हम उसका विसर्जन कर देते है। उसकी प्रतिभा को ‘काल- की सरिता में डुबो उसे गलने के लिए छोड़ देते हैं। भाषा की अभिवृद्धि और श्रीवृद्धि उसका उपयोग करने से होती है। उसका समृद्ध साहित्य और लोकजीवन के विभिन्न क्षेत्रों में उसकी उपयोगिता उसकी मान्यता का आधार बनती है। हिन्दी और भारतीय भाषाएँ दरिद्रों की भाषा नहीं है। वह आध्यात्म और प्रौद्योगिकी से लेकर विज्ञान का सूक्ष्मतम जानकारी कराने वाले शब्दों काभण्डार है। संस्कृत उसकी माँ है।

एक शब्द के अनेक और अगणित शब्दों का निर्माण करने की ‘धातु सम्पदा’ उसके पास है। भाषा का संवारने और उसे सुसंस्कृत करने वाला उसका व्याकरण प्रकृति और संस्कृति के बीच का सेतु है। उसमें ताल है, लय है। उसमें अनुरोध भी है और वैराग्य भी, उसमें संघर्ष का निषेध और समरसता की भावना है, भारतीय भाषाओं के साथ उसका ‘सखीभाव’ सर्वज्ञात है। उसको मार रहे हैं वे जो उसके नाम पर रोजी-रोटी कमाते-खाते हैं। उसकी अवमानना कर रहे हैं वे जो भाषा का व्यापार करते हैं। उसका विकास नहीं होने दे रहे हैं वे जिन्होंने उसका औद्योगिकरण कर रखा है। उसके प्रचलन में बाधक हैं वे जिन्हें सत्ता और ओट राजनीति के अतिरिक्त और कुछ समझते ही नहीं और जिन्हें यह भय है कि यह देश जब अपनी भाषा में बोलने लगेगा तो वे कहीं के नहीं रहेंगे। जरूरत इस बात की है कि देशवासी सत्ता के इन दलालों से बचना सीखें। इनका इरादा समझें और अपने-अपने इरादे पर दृढ़ता से कार्य करते रहें। अपने देश की भाषा में उनके राजकाज की भाषा से जवाब-तलब करें और इसका मानसिक दबाव से मुक्ति हो कि ‘क्या रखा है भाषा में? भाषा कोई भी हो काम-काज चलना चाहिए। भाष काम-काज चलाने के लए ही तो होती है।

पराई भाषा राष्ट्रीय सम्बन्धों और सम्बोधनों को बिगाड़ती और भ्रष्ट करती हैं। राष्ट्र की राष्ट्रीय भाषा सम्बोधनों और संज्ञानों को संतुलित, सकारात्मक और सार्थक बनाती है। स्वभाषा राष्ट्रीय स्वाभिमान का सहज सर्जक होती है। स्वभाषा की प्रतिष्ठा न होने के कारण हमारे देश जीवन की सहजता समाप्त होती जा रही है और हम सही-सही सम्प्रेषणय नहीं पा रहे है। देश में संवादहीनता की स्थिति पैदा हो गयी है। राज्य और राष्ट्र की भाषा की भिन्नता के कारण देशभाष अपने देश-दायित्व का निर्वाह नहीं कर पा रहे हैं। शासक पुत्र और परिवार, माँ की भाषा-भिन्नता, परिवार, समाज और राष्ट्रभाव का दमन कर रही है। चौदह सितम्बर के हिन्दी दिवस का महत्व तो है किन्तु उससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि हम उसकी ओर किस दृष्टि से, किस प्रेरणा ओर किस भवना से देखते तथा उसके उद्देश्यों से किस अहसास के साथ जुड़ते हैं। वैसे तो अगर देखा जाए तो हिन्दी दिवस के दिन जगह-जगह जलसे भाषण आदि होते रहते है, हिन्दी को मनाने व मनवाने के लिए जमकर तर्क-वितर्क दिए जाते हैं। इसका प्रयास शासकीय तथा अशासकीय स्तर पर भी होता है, जिसमें हिन्दी की प्रशंसा तथा उसके ही घर में उसी के विरूद्ध कमर कसकर खड़ी अंग्रेजी की जमकर आलोचना की जाती है। हिन्दी की सेवा करनेवाले तथा इसके बहाने सेवा प्राप्त करने वाले उसकी दीन-हीन दशा पर अपनी वेदना से देश को हर वरषी पर अवगत कराते रहते हैं, उसकी दशा सुधारने हेतु कसमें खायेंगे। कुछ चिन्तनशील लोग हिन्दी दिवस को जायज तो कुछ से बेमतलब ठहरायेंगे। उनके मन में हिन्दी के प्रति जो उदार है, जो चिन्ता है वह अखबारों में अक्षरशः उभर आती है। लेकिन जब तक आप उनकी चिन्ता से रूबरू होते है तब कि पन्द्रह सितम्बर हो गया होता है और ये चिन्तित मनीषी हिन्दी दिवस के अवसर पर जो संकल्पना लिये रहते हैं उसे वह विसर्जित कर अपना थकान मिटा रहे होते हैं अथवा अपने पाल्यों के लिए कान्वेण्ट स्कूल में दिखले के लिए घिघिया रहे होते हैं। जब तक सियासत की बाजीगरी में मशगूल लोग भी हिन्दी को उसका सही स्थान बताने व दिलाने की बात करते हैं पर उनके बनचों के लिए ‘अंग्रेजी’ ही विकास की खिड़की है। इस अवसर पर सत्ता में बैठे लोगों की बात समझ में आती है कि वे हिन्दी के पक्षकार भले ही हो पर हिन्दी के साधक यह बतायेंगे कि आखिर आजादी के बाद हिन्दी सत्ता की कृपा की मोहताज कैसे हो गयी?

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हिन्दी-दिवस के मनाने के बाद हम इस बात के तह तक नहीं जा पाते व इसका विरोध क्यों नहीं कर पाते? इस विरोध के सन्दर्भ में मैं एक बात कहना चहूँगी कि हिन्दी क्या सचमुच भारतीयता का पर्याय बनने योग्य नहीं है? हिन्दी को एक भाषा के रूप में संकुचित करने का प्रयास ही हिन्दी को भारतीय होने में रोड़ा है। हिन्दी एक सोच है जो भारतीयता के रूप में प्रकट होती है। अगर पिछला अवलोकन किया जाय तो आजादी की लड़ाई में आखिर हिन्दी कैसे राष्ट्र की भाषा बन गयी थी? आखिर क्यों अहिन्दी भाषी तिलक, सुभाष चन्द्र बोस आदि देश के नेता हिन्दी को अपनाने के लिए लोगों को प्रेरित किया। क्या आज के नेता उनसे अधिक देश की चिन्ता करने वाले हैं जो हिन्दी को अपनाने हेतु शासकीय प्रयास में देश के लिए खतरा देखते है? आखिर आजाद भारत में हिन्दी राष्ट्र की भाषा क्यों नहीं बन सकी। वे कौन लोग थे जो हिन्दी के साथ ‘अंग्रेजी’ चलाने की वकालत किए? क्या वे ‘अंग्रेजी’ थे? नहीं वे ‘अंग्रेजी’ सोच के लोग थे जो साम्राज्यवादी व्यवस्था के पोषक थे। क्योंकि साम्राज्यवादी व्यवस्था में आम व्यक्ति नहीं होता और हिन्दी आम की भाषा के बने यह उसे मंजूर नहीं था। विडम्बना तो यह भी है कि आज भी हिन्दी में कुछ ‘अंग्रेजी’ वाले है और जब इन्हीं ‘अंग्रेजी’ वाले हिन्दी भाईयों को आम पसन्द नहीं है तो हिन्दी आम की भाषा कैसे हो सकती है? हिन्दी दिवस हिन्दी सप्ताह, हिन्दी पखवारा, हिन्दी माह और हिन्दी वर्ष फिर कभी हिन्दी सदी, के रूप में जो कुछ कर रहे हैं अथवा करेंगे उसकी सार्थकता पर प्रश्न चिन्ह हिन्दी जगत से ही लगाये जा रहे है। पीड़ा पहुँचाने वाली बात तो यह है कि इसी के बहाने एक हिन्दी सेवक दूसरे को गरियाते, धकियाते मिलेंगे। कुछ लोग किसी-किसी को पूजते भी मिलेंगे वह भी निराले ढंग से। किसी की पूजा उसका गुणगान करने से नहीं बल्कि किसी अन्य को गरियाने से ही रही है।

हिन्दी को फूहड़ बनाकर परोसने के लिए विभिन्न चैनलों को धिक्कारने वाले उसका समाधान नहीं सुझाते और नहीं तो उन्हीं के माध्यम से खुद को प्रकट करने में एक दूसरे को मात देते दिख रहे है। आखिर है हममें से किसी के पास इसका जवाब कि चौदह सितम्बर के बाद ‘अंग्रेजी’ विकास की खिड़की कैसे हो जाती है? हिन्दी जगत के लोग बताते हैं कि जितना वाक् युद्ध उनमें चल रहा है उतना किसी अन्य भाषा के सेवकों में क्यों नहीं? क्या इसलिए कि देश की जो अन्य लोक-भाषाएँ है उनमें अपेक्षाकृत कम संख्या में ‘अंग्रेजी’ वाले हिन्दी भाईयों की घुसपैठ है। इन हिन्दी साधकों में इतना भी तेज नहीं कि अपनी माँ को सत्ता की कृपा की मोहताज बनने से मुक्ति दिला सकें? आखिर हम हिन्दी भाषी अपने में उतनी चेतना क्यों नहीं ला पा रहे हैं जितनी आजादी की लड़ाई के समय थी। इतना तो जरूर कहना चहूँगी कि हम हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की बात तो जरूरत करते हैं पर हिन्दी को विस्तार देने की बजाय अपने ही भाईयों की टांग खिंचाई में तल्लीन हैं। आज कब तक पुरस्कारों की गणित में हिन्दी को उलझाये रखेंगे? जब तक हम और आप स्वयं इन सवालों का जवाब नहीं ढूंढते हिन्दी दिवस, सप्ताह, पखवारा आदि का आयोजन मात्र करते रह जायेंगे इसे उचित निष्कर्ष पर पहुँचना भी दुर्लभ होता जा रहा है। आप हिन्दी के नाम पर अवश्य उपकृत होते रहेंगे यह आपसे उम्मीद की जाती है कि आप इस ‘वरखी’ पर जरूर कुछ ऐसा करेंगे, कहेंगे जिससे लगेगा कि आपकी चिन्ता जायज है। हो सकता है आपका यह प्रयास सफल हो।

 

डॉ. अर्चना त्रिपाठी

प्रवक्ता : हिन्दी-विभाग, नन्दिनी नगर पी.जी कॉलेज नवाबगंज गोण्डा

 

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