‘हकीरों में फकीरों में जरा़ मिल-बैठ कर देखों, पता चल जाएगा ‘आमिल’ तुझे कुछ भी नहीं आता।’
साल 2003-04 का कोई महीना रहा होगा। उस वक़्त मैं डॉ. राममनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय, अयोध्या (तब फैज़ाबाद) के जनसंचार एवं पत्रकारिता विभाग में प्राध्यापन-दायित्त्व का निर्वाह कर रहा था। उन्हीं दिनों एक विद्यार्थी ने मेरा तआरुफ़ फैज़ाबाद के ‘रामबोला’ की अभिव्यक्ति ‘मस्त कलम’ के नाम से करने वाले श्री सुदामा सिंह से करवाया। श्री सिंह ‘रामबोला’ चरित्र के माध्यम से समाज की विसंगतियों को उजागर करते थे। ‘मस्त कलम’ नाम से सामयिक व्यंग्याधारित उनका स्तम्भ एक दैनिक में छपता था। पहली ही मुलाक़ात में मैं उनकी अदब, तहज़ीब और एहतराम की ख़ुसूसियतों का कायल हो गया।
रेलवे के रिटायर्ड प्रिंसिपल थे वे। बड़े अखबार के लोकल एडिशन के कॉलमिस्ट थे। रंगमंच से जुड़े थे। नाटककार थे। बंगला संस्कृति उनमें रची-बसी थी। एकाध मुलाकातों में मैं उनकी तमाम खूबियों मन में जगह बनाती चली गईं। यह बात भी यहाँ बताने योग्य है कि उन्हें अभिनय के पुरोधा पृथ्वीराज कपूर का रंगमंचीय सान्निध्य भी हासिल था। उनके बोलने का अंदाज़ नखलवी होने साथ ही निहायत सलीकेदार था। बातचीत में अपनापन झलकता था। यही तमाम बातें थीं, जिनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका।
उन दिनों विभाग का एकमेव शिक्षक था मैं। जनसंचार एवं पत्रकारिता के अन्यान्य विषयों को पढ़ाने के लिए अतिथि वक्ताओं की ज़रूरत होती थी। पाठ्यक्रम का एक पेपर लेखन की विभिन्न विधाओं का था। उनमें व्यंग्य और नाटक विधा भी थी। ‘रामबोला’ व्यंग्यकार तो थे ही, थियेटर में भी दखल रखते थे। मैंने उनके सम्मुख इन विधाओं को पढ़ाने का प्रस्ताव रखा। वे सहज तैयार हो गए। गेस्ट फैकल्टी के रूप में श्री सिंह विभाग आने लगे। ‘रामबोला’ का जादू विद्यार्थियों के कमाल दिखाने लगा।
एक बार की बात है। विश्विद्यालय के महोत्सव की तैयारी चल रही थी। नाटक मंचन में विभाग के विद्यार्थियों की टीम को हिस्सा लेना था। विद्यार्थी उत्साहित थे। उन्हें रिहर्सल कौन कराए, यह समस्या आ खड़ी हुई। मैं अखबारनवीसी के गुर सिखाने वाला ज्यादा से ज्यादा रंगमंचीय रिपोर्टिंग के बारे में बता सकता था। नाटक मंचन का रिहर्सल मेरे बस का नहीं ही था। ऐसे में मेरा ध्यान श्री सिंह की ओर गया। थियेटर में उनके महारथ से वाकिफ था ही मैं। उनसे रिहर्सल करवाने का अनुरोध किया। वे तैयार हो गए। बड़े ही मनोयोग से उन्होंने रिहर्सल करवाया। एक हफ्ते के रिहर्सल में उन्होंने पत्रकारिता के विद्यार्थियों को रंगमंच का कलाकार बना दिया।
उस समय वे उम्रदराज ज़रूर थे, लेकिन कार्यदक्षता में युवाओं को भी मात देते थे। उन्होंने क्लास में कभी बैठ कर नहीं पढ़ाया। लम्बे क्लास लेते थे, घूम-घूम कर पढ़ाते थे। हर विद्यार्थी से एकसाथ मुखातिब होना उनकी ख़ासियत थी। उनकी हस्तलिपि अत्यंत सुंदर और पठनीय थी। मोती से अक्षर उनकी लेखनी से झरते थे। अपने व्यक्तित्त्व के लिए उनकी सजगता काबिलेगौर थी। उनका परिधान-बोध विश्विद्यालय की गरिमा के अनुरूप शालीनता का द्योतक था। यही सब बातें उनके व्यक्तित्त्व को औरों से अलग करती थीं।
वे धार्मिक थे, लेकिन दिखावा नहीं करते थे। दुर्गा पूजा पंडालों का आकर्षण उन्हें भाता था। उनकी वैचारिक निकटता फैज़ाबाद के प्रख्यात आध्यात्मिक गुरु आमिल जी से थी। उनकी पंक्तियाँ वे अक्सर दोहराते थे- ‘हकीरों में फकीरों में जरा़ मिल-बैठ कर देखों, पता चल जाएगा ‘आमिल’ तुझे कुछ भी नहीं आता।’
ये पंक्तियाँ श्री सिंह की गहरी सोच और उनके जीवन-दर्शन को व्याख्यायित करती हैं। मैं फैज़ाबाद 2007 तक रहा। विश्वविद्यालय और घर-बाहर मेरी उनसे मुलाकातों का सिलसिला चलता रहा। कला-दर्शन, पत्रकारिता, फैज़ाबाद के रंगमंच की दशा-दिशा सहित तमाम मुद्दों पर खूब बात होती। विद्यार्थियों को व्यावहारिक प्रशिक्षण की योजनाओं पर हम चर्चा करते। समय गुजरता रहा। 2007 में मैंने अपने कदम अगले पड़ावों की ओर बढ़ा दिया। मेरा फैज़ाबाद छूटा, लेकिन उनसे नाता नहीं टूटा। मैं फिर फैज़ाबाद बहुत कम गया। लेकिन वे जब लखनऊ आते तो घर-कार्यालय आकर अवश्य मिलते। इधर कुछ सालों से उनका लखनऊ आना-जाना बहुत कम हो गया था। लेकिन दूरभाष/चलभाष संवाद कायम रहा। अब वे बहुत दूर चले गए हैं। ‘रामबोला’ परमधाम प्रयाण कर गए हैं। ‘सुदामा’ ने गोलोकधाम का वरण कर लिया है।