-प्रगतिशीलता, प्रतिबद्धता और समकालीन स्त्री-लेखन’ विषय पर एक परिचर्चा का आयोजन
अयोध्या। जनवादी लेखक संघ, फै़जाबाद की ‘स्त्री-स्वर’ शृंखला के अन्तर्गत ‘प्रगतिशीलता, प्रतिबद्धता और समकालीन स्त्री-लेखन’ विषय पर एक परिचर्चा का आयोजन शांतिभवन, वजीरगंज में किया गया। कार्यक्रम की मुख्य वक्ता के रूप में प्रतिष्ठित पत्रिका ‘हंस’ में सम्पादन-सहयोगी के रूप में कार्यरत युवा लेखिका, कवयित्री और टिप्पणीकार शोभा अक्षर उपस्थित रहीं। इस अवसर पर आधार वक्तव्य प्रस्तुत करते हुए प्राध्यापक-कवि डा. विशाल श्रीवास्तव ने कहा कि उन्नीसवीं शताब्दी के अंत और बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में प्रारम्भ हुए स्त्रीवादी आंदोलन के प्रथम दौर में महिलाओं ने अपने अधिकारों की माँग मातृत्व के अधिकार और श्रम सम्बन्धी समानता को लेकर प्रारम्भ की जो दूसरे दौर में राजनैतिक अधिकारों की मांग तक पहुँची।
इस सम्बन्ध में उन्होंने जेन्डर पालिटिक्स को लेकर केट मिलेट की पुस्तक ‘सेक्सुअल पालिटिक्स’, फायरस्टोर की पुस्तक ‘द डायलेक्टिक आफ सेक्स’ और जूलिएट मिशेल की किताब ‘द वुमन स्टेट’ की चर्चा करते हुए कैरौल हैरिस के नारे ‘पर्सनल इज़ पालिटिकल’ और उसके सम्बन्ध में स्त्री-लेखन की बात की। उन्होंने कहा कि मूलतः स्त्रीवादी आंदोलन एक अस्मितावादी आंदोलन भी है जो पितृसत्तात्मक संरचना का विरोध करता है। डा. विशाल ने हिन्दी साहित्य आंदोलन में राजेन्द्रबालाघोष से लेकर सुभद्राकुमारी चैहान, महादेवी वर्मा और आधुनिक लेखिकाओं जैसे मन्नू भण्डारी, कृष्णा सोबती, ममता कालिया, मैत्रेयी पुष्पा और मृदुला गर्ग के लेखन की चर्चा की।
उन्होंने यह तथ्य रखा कि स्त्रीवादी लेखन अपनी अस्मिता के संघर्ष के आगे वर्गसंघर्ष, साम्प्रदायिकता और बाज़ारवाद जैसे प्रगतिशीलता और प्रतिबद्धता से जुड़े मुद्दों पर किस तरह अपना पक्ष रख रहा है, इसपर ध्यान दिये जाने की ज़रूरत है। डा. विशाल के अनुसार प्रेम कविताओं के नाम पर केवल आत्मरति और सनसनीखेज़ वर्णनों से आगे बढ़कर सामाजिक प्रतिबद्धता और संघर्ष के बीच मूर्त होते प्रेम को काव्यविषय बनाये जाने की अधिक ज़रूरत है। संघर्ष के मूलभूत प्रश्नों को भी व्यापकता के साथ स्त्री-लेखन के भाव-संवेदन और सरोकार के साथ सम्बद्ध करने की आवश्यकता पर उन्होंने विशेष रूप से बल दिया। आज के समय में जब प्रतिबद्धता के मूल्य के सामने वृहत रूप से संकट मौजूद हो तो स्त्री-लेखन के सामने यह ज़िम्मेदारी और भी बढ़ जाती है। उन्होंने विश्वसाहित्य से ख्यात कवयित्री विस्वावा शिंबोर्स्का का उल्लेख करते हुए यह कहा कि उनकी राजनैतिक संदर्भ की कविताओं को ध्यान से देखा जाना चाहिए और प्रेरणा ग्रहण करनी चाहिए।
मुख्य वक्ता शोभा अक्षर ने केन्द्रीय वक्तव्य प्रस्तुत करते हुए इस कार्यक्रम के आयोजन के प्रति धन्यवाद ज्ञापित करते हुए कहा कि आज प्रतिबद्धता और प्रगतिशीलता के बारे में बात करना एक महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी का काम है। उन्होंने कहा कि प्रगतिशीलता और आधुनिकता का गहरा सम्बन्ध है और आधुनिकता सदैव समय-सापेक्ष होती है। स्त्रियों ने पहली लड़ाई में यदि मातृत्व माँगा तो दूसरी लड़ाई में कानूनी पहचान और अपने एकांत की माँग की, जो इस बदलती हुई आधुनिकता का प्रतीक है। उनके अनुसार प्रगति का अर्थ मुक्तिबोध के शब्दों में दुनिया को बेहतर बनाने की कोशिश है, जिसकी ध्वनि स्त्रीवाद की प्रणेता सिमोन द बोउवार के कहे में भी ध्वनित होती है। शोभा ने कहा कि स्त्रीमुक्ति आंदोलन की जो लहरें आयी हैं, उनके आगे अभी कई और लहरें आनी बाकी हैं और इसमें स्त्री-लेखकों के साथ-साथ बहुत से फेमिनिस्ट पुरुष-लेखकों का भी गहरा योगदान है और रहेगा। उनके अनुसार स्त्रीमुक्ति का आंदोलन सैकड़ों सालों की मुसलसल लड़ाई का नतीज़ा है, परिणामतः आज की स्त्री ‘नहीं’ कहना सीख रही है।
शोभा के अनुसार प्रगतिशीलता और आधुनिकता के रास्ते में सबसे बड़ा अवरोध मिसॉजिनी अर्थात् स्त्रीद्वेष है, जो केवल पुरुषों में ही नहीं बल्कि स्त्रियों में भी पाई जाने वाली चीज़ है। शोभा अक्षर ने कहा कि आज के साहित्य में ज़रूरत है कि परम्परागत पुरुष और स्त्रियों की छवि को तोड़ने वाले संदर्भ आयें। उन्होंने विख्यात लेखिका तस्लीमा नसरीन के हवाले से कहा कि आज स्त्रियाँ ही हैं जो अपने हत्यारों के साथ बड़ी आत्मीयता के साथ रहती-जीती हैं, दुनिया में कोई ऐसी दूसरी प्रजाति नहीं है। ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जहाँ महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों में उनके निकट के लोगों का हाथ होता है। उनके अनुसार समाज की ऐसी मानसिकता में बदलाव स्त्री-लेखन के साथ-साथ पुरुषों द्वारा किये जा रहे स्त्रीवादी लेखन के ही सम्भव है।
शोभा ने कहा कि प्रतिबद्धता के सवाल को केवल द्विध्रुवीय राजनीति के आईने से नहीं देखा जाना चाहिए और सबसे अधिक महत्वपूर्ण है वैचारिक प्रतिबद्धता। उनके अनुसार किसी स्त्री को सहज महसूस कराना भी एक किस्म की प्रतिबद्धता है, जिसके विभिन्न आयाम सम्भव हो सकते हैं। उनके अनुसार सामाजिक चेतना, जिसके आधार पर प्रतिबद्धता निर्मित होती है वह केवल स्त्री-विमर्श से नहीं बल्कि दलित-विमर्श, आदिवासी विमर्श, थर्ड जेंडर विमर्श और पर्यावरण विमर्श के सम्मिलित होने से आयेगी। शोभा ने कहा कि साहित्य का मतलब ही है, हर कमज़ोर के पक्ष में खड़े होना, जिसकी ज़िम्मेदारी स्त्री-लेखन को भी उठानी होगी।
उन्होंने कहा कि सिल्विया प्लाथ का कथन है कि औरत होना अपने आप में एक यंत्रणादायक बात है, विकसित देशों में भी स्त्रियों के बाहर निकलने को उसके व्यवहार की उच्छृंखलता की तरह देखा जाता है। सिल्विया का कहना है कि यह विडम्बना है स्त्रियाँ लिखें भी और फिर उसके प्रकाशन और उत्पादन के लिए भी अतिरिक्त प्रयास करे। साहित्य में स्त्री की पारम्परिक और रूढ़िवादी अभिव्यक्तियों को अनुमोदित किया जाता है लेकिन उसकी यौनिक स्वतंत्रता की बात आते ही वह असहज हो जाता है और ऐसे लेखन को अश्लील और अमर्यादित खांचे में सीमित कर देता है। शोभा अक्षर ने कहा कि यह बात सही है कि समकालीन स्त्री लेखन में प्रतिबद्धता और राजनैतिक जागरूकता को लेकर बहुत कम नाम देखने को मिलते हैं। शोभा ने कहा कि न केवल युवा लेखिकाएँ बल्कि प्रतिष्ठित और पुरस्कृत लेखिकाएँ भी महत्वपूर्ण सामाजिक-राजनैतिक मुद्दों पर गम्भीर स्टैण्ड लेने से बचती हैं। उन्होंने कहा कि नासिरा शर्मा और मृदुला गर्ग दो नाम ऐसे लिए जा सकते हैं, जिनका राजनैतिक पक्ष एकदम स्पष्ट है और वे तीखे़ स्वर में युद्ध और अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाती हैं।
अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में समाजसेवी सूर्यकांत पाण्डेय ने गोष्ठी की सफलता के लिए साधुवाद देते हुए कहा कि आज समाज को शोभा अक्षर जैसी जागरूक और आत्मनिर्भर स्त्रियों की ही आवश्यकता है, जो स्त्रीवादी आंदोलन को दिशा दिखा सकें। उन्होंने कहा कि वे उस फैज़ाबाद शहर की पहचान हैं जो अपनी क्रांतिकारी शख्सियतों के लिए जाना जाता है।
जनवादी लेखक संघ, फै़ज़ाबाद के उपाध्यक्ष डा. नीरज सिन्हा नीर ने यह कहा कि जब हम स्त्रीवादी आंदोलन की बात करते हैं तो अधिकार के प्रश्न पर भी चर्चा की जानी चाहिए कि क्या अधिकार के रूप में ही समानता की मांग करना आवश्यक है और क्या इसे एक सहज विकसनशील प्रक्रिया के रूप में नहीं प्राप्त किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि समाज में निरंतर परिवर्तन आया है और स्त्री आंदोलन के स्वर को उन परिप्रेक्ष्यों में देखने की आवश्यकता है।
संगठन के कार्यकारी सचिव मुज़म्मिल फिदा ने कार्यक्रम के आरम्भ में आए हुए वक्ताओं और अतिथियों का स्वागत करते हुए फै़ज़ाबाद के अज़ीम शायर चकबस्त साहब के एक शेर के हवाले से कहा कि समाज के समस्त अवयवों का समन्वय करके ही हम प्रगति के पथ पर सतत रूप में अग्रसर हो सकते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि इस बात की समीक्षा भी हमें करते रहना चाहिए कि किसी भी आंदोलन या विमर्श के लक्ष्य प्राप्त क्यों नहीं हो रहे हैं और इस आधुनिक समय में हमें उनकी ज़रूरत क्यों पड़ रही है।
कार्यक्रम का संचालन करते हुए युवा कवयित्री माण्डवी सिंह ने विस्तार से विषय का परिचय देते हुए आमंत्रित वक्ता शोभा अक्षर का परिचय प्रस्तुत किया। उन्होंने इस मौके पर अपनी बात रखते हुए एक स्वरचित कविता ‘बहुत तेज़ औरत है’ का पाठ भी किया, जो सीधे तौर पर गोष्ठी के विषय से सम्बन्धित थी।
युवा अध्येता आकाश ने महत्वपूर्ण सवाल उठाया कि क्या प्रगतिशीलता को पितृसत्तात्मकता के नकार के रूप में ही देखा जा सकता है और क्या सामाजिक चेतना से लैस रहना ही प्रतिबद्धता है? उन्होंने यह भी पूछा कि लेखक के सैद्धान्तिक और व्यावहारिक जीवन में होने वाले अंतर को किस रूप में देखा जाना चाहिए? इन प्रश्नों के उत्तर में शोभा ने मशहूर कहानीकार राजेन्द्र यादव के हंस में छपने वाले स्तम्भ ‘कांटे की बात’ के माध्यम से लेखकीय जीवन और सिद्धान्त के बारे में अमृता प्रीतम और इमरोज़ के सम्बन्ध के बहाने विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की। प्रतियोगी छात्र उमेश तिवारी ने भी स्त्री-पुरुष सम्बन्धों और अलगाव को लेकर महत्वपूर्ण सवाल पूछे जिनका जवाब शोभा अक्षर एवं विशाल श्रीवास्तव द्वारा दिया गया। कार्यक्रम के अंत में संयोजक सत्यभान सिंह जनवादी ने आये हुए अतिथियों का आभारज्ञापन करते हुए कहा कि भारतीय समाज में स्त्री और पुरुष के सम्बन्धों पर नये तरीके से और स्वस्थ वातावरण में विचार करने की ज़रूरत है और यह काम केवल स्त्रीपक्ष से ही नहीं बल्कि पुरुषपक्ष से भी किया जाना है।
संगठन की सदस्य युवा कवयित्री पूजा श्रीवास्तव ने अपनी बात रखते हुए कहा कि आज का स्त्री लेखन महत्वपूर्ण तरीके से समाज की विसंगतियों के प्रति अपना पक्ष प्रस्तुत कर रहा है और आज के इस महत्वपूर्ण संवाद से प्रगतिशीलता और प्रतिबद्धता के सवालों के प्रति स्त्री दृष्टिकोण के बारे में और अधिक जानने-समझने का अवसर हम सबको प्राप्त हुआ है। कार्यक्रम में बृजेश श्रीवास्तव, जे.पी. श्रीवास्तव, अखिलेश सिंह, रामजी तिवारी, आर.एन. कबीर, मो. शफीक, अजय श्रीवास्तव, उमेश तिवारी, मनोरमा साहू, साधना सिंह, अपर्णा जायसवाल, किरन देवी, नूरजहाँ, वाहिद अली, शशि यादव, मो. नदीम सहित बड़ी संख्या में कवि-लेखक, अध्येता एवं सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता उपस्थित रहे।