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पूर्व सांसद भालचंद यादव का निधन, शोक की लहर

गुड़गांव कें मेदांता अस्पताल में ली अन्तिम सांस

संतकबीरनगर। संतकबीरनगर के पूर्व सांसद 61 वर्षीय भालचंद यादव का शुक्रवार को गुड़गांव के मेदांता अस्पताल में निधन हो गया। वह पिछले कई महीनों से बीमार चल रहे थे। भालचंद यादव के निधन से उनके गृह जनपद संतकबीरनगर में शोक की लहर दौड़ गयी।
बीते लोकसभा चुनाव में वह जिले की खलीलाबाद सीट से कांग्रेस के उम्मीदवार थे। भालचंद यादव 1999 से 2008 तक सांसद रहे। संसद में उन्घ्होंने दो बार अपने क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया। वह जिले के कद्दावर नेता में शुमार किए जाते थे। भालचंद यादव संतकबीरनगर के भगता गांव के मूल निवासी थे। बताते है कि वह पिछले कुछ महीनों से पीलिया से पीड़ित थे। कुछ दिन पहले उन्हें मेदांता अस्पताल में भर्ती कराया गया था। परिवारिक सूत्रों ने बताया कि बुधवार की सुबह से ही उनकी तबीयत ज्यादा बिगड़ने लगी थी। गुरुवार सुबह से वह वेंटिलेंटर पर थे। शुक्रवार दोपहर उनका निधन हो गया।

सड़क से संसद तक भालचंद का सियासी सफर

संतकबीरनगर के सियासी पिच के जिद्दी खिलाड़ी पूर्व सांसद भाचचंद्र यादव अब नहीं रहे। छात्र राजनीति से सियासी सफर की शुरुआत कर लंबे संघर्षों के बीच राजनीति के शिखर तक पहुंचे। 40 वर्ष के राजनीतिक जीवन में अपने वसूलों के साथ कभी समझौता नहीं किया। उन्होंने वही किया जो दिल ने कहा। कभी न दल की परवाह की न नेताओं की। हमेशा समर्थक, कार्यकर्ता और जनता ही जेहन में रही और विकास ही मुद्दा रहा।
संतकबीरनगर को जिला बनवाने के साथ ही उसके विकास के लिए हर स्तर तक उन्होंने संघर्ष किया। उनकी राजनीतिक नर्सरी से निकलकर कई नेता विधान सभा और लोकसभा में पहुंचे। जनपद ही नहीं आस-पास के जनपदों में भी लोहा मनवाया। जब-जब खुद को साबित करने का अवसर मिला तो उन्होंने विरोधियों को मात देकर साबित करने का भी काम किया। ऐसे नेता के निधन पर जिले के लोगों में शोक की लहर है और हर किसी के जुबान पर उनके कार्यों की ही चर्चा है।
पूर्व सांसद भालचंद्र यादव बेहद गरीब परिवार से थे। बचपन में पहलवानी ही उनका शौक था। इंटरमीडिएट की पढ़ाई के बाद डिग्री कॉलेज में पहुंचे तो वे राजनीति में उतर गए। वर्ष 1979 में पहली बार एचआरपीजी कॉलेज से छात्र संघ उपाध्यक्ष का चुनाव लड़े और हार गए। इस हार के बाद डिगे नहीं और सियासत के मैदान में कूद पड़े। 18 वर्ष के लंबे संघर्ष के बाद वर्ष 1998 में समाजवादी पार्टी ने भालचंद्र यादव को खलीलाबाद लोकसभा सीट से प्रत्याशी बनाया तो चुनाव की फिजा ही बदल गई। इस चुनाव में उन्हें 1.95 लाख मत मिले और बहुत कम अंतर से चुनाव हारे। 1999 में हुए चुनाव में वह पहली बार जीते और लोकसभा में पहुंचे। लोकसभा में पहुंचने के साथ ही उन्होंने जिले के विकास को गति देना शुरू कर दिया। मगहर में तत्कालीन राष्ट्रपति को ले आए और कई सौगात ली। दर्जनों ट्रेनों के ठहराव के साथ ही बिड़हर घाट, सड़कों का निर्माण जैसे कई अहम विकास के कार्य कराएं। लेकिन इस बीच जब जिला पर आंच आई तो वे आंदोलन पर भी कूद गए। उन्होंने लंबा आंदोलन चलाया।
सपा शासन में जब संतकबीरनगर का जिले का दर्जा खत्म किया गया तो इस मुद्दे पर ही पूर्व सांसद ने सपा का साथ छोड़ जनता दल यू का दामन थाम लिया। इस बीच कुछ मुद्दों को लेकर उन्होंने जनता दल यू का भी साथ छोड़ दिया और फिर बसपा में चले गए। वर्ष 2004 का लोकसभा चुनाव उन्होंने बसपा से जीत कर जनपद में लगातार दूसरी बार चुनाव जीतने का रिकार्ड भी बनाया। उन्होंने संघर्षों की बदौलत संतकबीरनगर को जिला बनवाकर ही दम लिया। हालांकि 2007 विधान सभा चुनाव के ठीक पहले जनपद के कुछ मुद्दों को लेकर उन्होंने बसपा का भी साथ छोड़ दिया और सपा में चले गए। 2008 के उप चुनाव में भालचंद्र यादव चुनाव जरूर हार गए लेकिन वोट का प्रतिशत कभी कम नहीं हुआ। सपा में कुछ दिन रहने के बाद उन्होंने कुछ विकास के मुद्दों को लेकर बसपा की सदस्यता ग्रहण कर ली और जिले की कई सड़कों का विकास कराया। इस बीच 2010 के पंचायत चुनाव में बसपा ने सिद्धार्थनगर जनपद भेज दिया। भालचंद्र यादव ने वहां भी अपना परचम लहराते हुए जिला पंचायत अध्यक्ष की कुर्सी पर अपने बेटे प्रमोद यादव को बैठा दिया। बसपा ने विधान सभा चुनाव 2012 में उनके पुत्र सुबोध यादव को इटवा विधान सभा क्षेत्र से टिकट दिया लेकिन वे हार गए। इसके बाद भालचंद्र एक बार फिर सपा के साथ आए। सपा में आने के साथ ही जनपद को बीएमसीटी मार्ग की सौगात दिलाई। 2014 का लोक सभा चुनाव सपा के टिकट पर लड़े लेकिन मोदी लहर में चुनाव हार गए। 2015 पंचायत चुनाव में अपने बेटे और बहू को जिला पंचायत सदस्य बनाया। 2019 के लोकसभा का चुनाव भालचंद्र यादव ने कांग्रेस के टिकट पर लड़ा। उनके लोकप्रियता की देन रही दशकों बाद कांग्रेस ने पिछले लोक सभा चुनाव में एक लाख 28 हजार 506 मत प्राप्त किया। पूर्व सांसद भालचंद्र की लोकप्रियता की ही देन रही कि हर दल के मुखिया सीधे उनके टच में रहते थे और उनके लिए दल का दरवाजा भी खुला रहता था। चुनाव बाद बसपा सुप्रीमों के बुलावे पर पूर्व सांसद बसपा की सदस्यता ग्रहण कर पार्टी की मजबूती में जुट गए थे। लेकिन इसी बीच वे अचानक बीमार पड़ गए।

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